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अकरम महमूद

परम्परा और अधुनिक काव्य विचारधारा के सामंजस्य का शायर, संजीदा अदबी महफ़िलों में लोकप्रिय

परम्परा और अधुनिक काव्य विचारधारा के सामंजस्य का शायर, संजीदा अदबी महफ़िलों में लोकप्रिय

अकरम महमूद के शेर

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पाँव उठते हैं किसी मौज की जानिब लेकिन

रोक लेता है किनारा कि ठहर पानी है

अब दिल भी दुखाओ तो अज़िय्यत नहीं होती

हैरत है किसी बात पे हैरत नहीं होती

सितारा आँख में दिल में गुलाब क्या रखना

कि ढलती उम्र में रंग-ए-शबाब क्या रखना

दो चार बरस जितने भी हैं जब्र ही सह लें

इस उम्र में अब हम से बग़ावत नहीं होती

बस इतना याद है इक भूल सी हुई थी कहीं

अब इस से बढ़ के दुखों का हिसाब क्या रखना

गुम तो होना था ब-हर-हाल किसी मंज़र में

दिल हुआ ख़्वाब में गुम आँख हुई आब में गुम

अब दर्द भी इक हद से गुज़रने नहीं पाता

अब हिज्र में वो पहली सी वहशत नहीं होती

वक़्त कहाँ रुका भला पर ये किसे गुमान था

उम्र की ज़द में आएगा तुझ सा परी-जमाल भी

मुझ पे आसाँ है कहे लफ़्ज़ का ईफ़ा करना

उस को मुश्किल है तो वो अपनी सुहूलत देखे

हमेशा एक सी हालत पे कुछ नहीं रहता

जो आए हैं तो कड़े दिन गुज़र भी जाएँगे

चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर भी जाएँगे

मिरे बग़ैर तिरे दिन गुज़र भी जाएँगे

देख ये दिल जो कभी हद से गुज़र जाता था

देख दरिया में कोई शोर तुग़्यानी है

दिल ख़ुश जो नहीं रहता तो इस का भी सबब है

मौजूद कोई वज्ह-ए-मसर्रत नहीं होती

मकाँ की कोई ख़बर ला-मकाँ को कैसे हो

सफ़ीर-ए-रूह अभी जिस्म के हिसार में है

अजब तक़ाज़ा है मुझ से जुदा होने का

कि जैसे कौन-ओ-मकाँ मेरे इख़्तियार में है

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