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अंजुम इरफ़ानी

1937 | बलरामपुर, भारत

अंजुम इरफ़ानी के शेर

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चराग़ चाँद शफ़क़ शाम फूल झील सबा

चुराईं सब ने ही कुछ कुछ शबाहतें तेरी

हम फ़ना-नसीबों को और कुछ नहीं आता

ख़ूँ शराब कर लेना जिस्म जाम कर लेना

कोई पुराना ख़त कुछ भूली-बिसरी याद

ज़ख़्मों पर वो लम्हे मरहम होते हैं

सफ़र में हर क़दम रह रह के ये तकलीफ़ ही देते

बहर-सूरत हमें इन आबलों को फोड़ देना था

तेशा-ब-कफ़ को आइना-गर कह दिया गया

जो ऐब था उसे भी हुनर कह दिया गया

लहजे का रस हँसी की धनक छोड़ कर गया

वो जाते जाते दिल में कसक छोड़ कर गया

अदा हुआ कभी मुझ से एक सज्दा-ए-शुक्र

मैं किस ज़बाँ से करूँगा शिकायतें तेरी

उधर सच बोलने घर से कोई दीवाना निकलेगा

उधर मक़्तल में इस्तिक़बाल की तय्यारियाँ होंगी

सर-ए-राह मिल के बिछड़ गए था बस एक पल का वो हादसा

मिरे सेहन-ए-दिल में मुक़ीम है वही एक लम्हा अज़ाब का

इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह

फूल फेंका भी मिरी सम्त तो पत्थर की तरह

लौट कर यक़ीनन मैं एक रोज़ आऊँगा

पलकों पे चराग़ों का एहतिमाम कर लेना

आबादियों में कैसे दरिंदे घुस आए हैं

मक़्तल गली गली है हर इक घर लहू लहू

लम्हे लम्हे में हुआ जाता हूँ रेज़ा रेज़ा

वजह कुछ मुझ से पूछो मिरे रब से पूछो

आया था पिछली रात दबे पाँव मेरे घर

पाज़ेब की रगों में झनक छोड़ कर गया

मिरी नज़र में गया है जब से इक सहीफ़ा-रुख़

कशिश रही दिल में अब किसी किताब के लिए

यक-ब-यक जाँ से गुज़रना तो है आसाँ 'अंजुम'

क़तरा क़तरा कई क़िस्तों में पिघल कर देखें

बात कुछ होगी यक़ीनन जो ये होते हैं निसार

हम भी इक रोज़ किसी शम्अ पे जल कर देखें

क्या अजब है कि ये मुट्ठी में हमारी जाए

आसमाँ की तरफ़ इक बार उछल कर देखें

याद है क़िस्सा-ए-ग़म का मुझे हर लफ़्ज़ अभी

हाल जिस दर्द का जिस रंज का जब से पूछो

मुट्ठी से फिसले ही जाते हैं हर फल

वस्ल के लम्हे तार-ए-रेशम होते हैं

पलकों पे जुगनुओं का बसेरा है वक़्त-ए-शाम

'अंजुम' मैं पानियों में चमक छोड़ कर गया

दर्द-ए-दिल बाँटता आया है ज़माने को जो अब तक 'अंजुम'

कुछ हुआ यूँ कि वही दर्द से दो-चार हुआ चाहता है

हर चेहरा हर रंग में आने लगता है

पेश-ए-नज़र यादों के अल्बम होते हैं

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