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अक़ील नोमानी

1958 | बरेली, भारत

समकालीन शायर, मुशायरों में लोकप्रिय

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अक़ील नोमानी के शेर

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मुस्कुराने की क्या ज़रूरत है

आप यूँ भी उदास लगते हैं

बड़ी ही कर्बनाक थी वो पहली रात हिज्र की

दोबारा दिल में ऐसा दर्द आज तक नहीं हुआ

लगता है कहीं प्यार में थोड़ी सी कमी थी

और प्यार में थोड़ी सी कमी कम नहीं होती

कुछ देर उस ने देख लिया चाँद की तरफ़

कुछ देर आज चाँद को इतराना चाहिए

बस इतनी सी बात थी उस की ज़ुल्फ़ ज़रा लहराई थी

ख़ौफ़-ज़दा हर शाम का मंज़र सहमी सी हर रात मिली

मुसाफ़िर तिरा ज़िक्र करते रहे

महकता रहा रास्ता देर तक

पूछो ज़रा ये कौन सी दुनिया से आए हैं

कुछ लोग कह रहे हैं हमें कोई ग़म नहीं

मिरी वहशत मिरे सहरा में उन को ढूँढती है

जो थे दो-चार चेहरे जाने पहचाने से पहले

था ज़हर को होंटों से लगाना ही मुनासिब

वर्ना ये मिरी तिश्ना-लबी कम नहीं होती

हम कैसे ज़िंदा हैं अब तक

हम को भी हैरत होती है

सुनी अँधेरों की सुगबुगाहट तो शाम यादों की कहकशाँ से

छुपे हुए माहताब निकले बुझे हुए आफ़्ताब निकले

ख़बर है कोई चारागर आएगा

सलीक़े से बैठे हैं बीमार सब

दिल कई साल से मरघट की तरह सूना है

हम कई साल से रौशन हैं चिताओं की तरह

अनगिनत सफ़ीनों में दीप जगमगाते हैं

रात ने लुटाया है रंग-ओ-नूर पानी पर

कभी तमाम तो कर बद-गुमानियों का सफ़र

किसी बहाने किसी रोज़ आज़मा तो सही

वहशी रक़्स चमकते ख़ंजर सुर्ख़ अलाव

जंगल जंगल काँटे-दार क़बीले फूल

जिस को चाहा बस उसी का रास्ता तकते रहे

पत्थरों की जुस्तुजू में ख़ुद को पत्थर कर लिया

अब संग-बारियों का अमल सर्द पड़ गया

अब उस तरफ़ भी रंज मिरे टूटने का है

नज़र बचाए गुज़र जाऊँ पास से उस के

उसे भी आज ज़रा सा डरा दिया जाए

ग़ैर चेहरे अजनबी माहौल मुबहम से नुक़ूश

मैं जहाँ पहुँचा वही मेरा वतन साबित हुआ

बे-सबब दोनों में हर एक को दिलचस्पी थी

और हर एक से बेज़ार थे हम भी तुम भी

हमें भी वक़्त के तूफ़ान मिल कर खा गए आख़िर

हर इक कश्ती को मिल जाता है साहिल हम भी कहते थे

बे-सबब दोनों में हर एक को दिलचस्पी थी

और हर एक से बेज़ार थे हम भी तुम भी

बे-सबब दोनों में हर एक को दिलचस्पी थी

और हर एक से बेज़ार थे हम भी तुम भी

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