असद अली ख़ान क़लक़ के शेर
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
ऐ जान आ के तूल-ए-शब-ए-इंतिज़ार देख
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ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
किस दिन बहार आई मैं दीवाना कब हुआ
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'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
हमारी क़ब्र पर जब मजमा-ए-अहल-ए-सुख़न होगा
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चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
शब-ए-फ़िराक़ में था तुझ से मश्ग़ला दिल का
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राह-ए-हक़ में खेल जाँ-बाज़ी है ओ ज़ाहिर-परस्त
क्या तमाशा दार पर मंसूर ने नट का किया
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फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
ख़ैर इस घड़ी तो आप का मैं कर गया लिहाज़
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काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
बन कर कमंद-ए-उल्फ़त ज़ुन्नार बरहमन का
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सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में
अपने साए को समझता हूँ कि सय्याद आया
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ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो न आने दो
मैं बोसे लूँगा सोते में मुझे लपका है चोरी का
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अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
बस इक निगाह पे ठहरा है फ़ैसला दिल का
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करो तुम मुझ से बातें और मैं बातें करूँ तुम से
कलीम-उल्लाह हो जाऊँ मैं एजाज़-ए-तकल्लुम से
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यही इंसाफ़ तिरे अहद में है ऐ शह-ए-हुस्न
वाजिब-उल-क़त्ल मोहब्बत के गुनहगार हैं सब
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अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
दुश्मनी कर के मिरे दोस्त ने मारा मुझ को
फिर गया आँखों में उस कान के मोती का ख़याल
गोश-ए-गुल तक न कोई क़तरा-ए-शबनम आया
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याद दिलवाइए उन को जो कभी वादा-ए-वस्ल
तो वो किस नाज़ से फ़रमाते हैं हम भूल गए
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हुआ मैं रिंद-मशरब ख़ाक मर कर इस तमन्ना में
नमाज़ आख़िर पढ़ेंगे वो किसी दिन तो तयम्मुम से
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यूँ रूह थी अदम में मिरी बहर-ए-तन उदास
ग़ुर्बत में जिस तरह हो ग़रीब-उल-वतन उदास
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मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
कोई नहीं शरीक किसी के गुनाह में
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करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं
हम उन की थोड़े दिनों और चाह देखते हैं
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मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
शीर के बदले पिया है मैं ने शीरा ताक का
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अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
तो और थोड़े दिनों ये लिबास चल जाता
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बे-सबब ग़ुंचे चटकते नहीं गुलज़ारों में
फिर रहा है ये ढिंढोरा तिरी रानाई का
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जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
इत्र खींचा यार के लब ने गुल-ए-तक़रीर का
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वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
मिला है गेसू-ए-जानाँ से सिलसिला दिल का
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उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
नाम को दुनिया में हैं अब साहब-ए-इस्लाम हम
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तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
तो हाला गिर्द हर्फ़ों के बने सोने के पानी का
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पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
देखो ज़रा शुऊ'र हमारे ग़ुबार का
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बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा
हाथ में सुब्हा गले में मिरे ज़ुन्नार रहा
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गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
दिन रह गया कभी तो कभी रात रह गई
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हिम्मत का ज़ाहिदों की सरासर क़ुसूर था
मय-ख़ाना ख़ानक़ाह से ऐसा न दूर था
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यूँ राही-ए-अ'दम हुई बा-वस्फ़-ए-उज़्र-ए-लंग
महसूस आज तक न हुए नक़्श-ए-पा-ए-शम्अ'
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कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
क़ैद-ए-मज़हब से जुनूँ ने मुझे आज़ाद किया
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ख़त में लिक्खी है हक़ीक़त दश्त-गर्दी की अगर
नामा-बर जंगली कबूतर को बनाना चाहिए
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मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
बिछाएँगे मुसल्ला चल के हम मेहराब-ए-अबरू में
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सितम वो तुम ने किए भूले हम गिला दिल का
हुआ तुम्हारे बिगड़ने से फ़ैसला दिल का
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कुछ ख़बर देता नहीं उस की दिल-ए-आगह मुझे
वही के मानिंद अब मौक़ूफ़ है इल्हाम का
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नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
नहीं हम शेर कहते पेशा-ए-फ़र्हाद कहते हैं
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दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
दामन अबद में है तो गरेबाँ अज़ल में है
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
ताइर-ए-दिल को हमारे राम-दाना चाहिए
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बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
उधर चटका कोई ग़ुंचा इधर टूटा हर इक टाँका
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ऐ परी-ज़ाद जो तू रक़्स करे मस्ती में
दाना-ए-ताक हर इक पाँव में घुंघरू हो जाए
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मिसाल-ए-आइना हम जब से हैरती हैं तिरे
कि जिन दिनों में न था तू सिंगार से वाक़िफ़
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सिंदूर उस की माँग में देता है यूँ बहार
जैसे धनक निकलती है अब्र-ए-सियाह में
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तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर
ख़िज़र ने ख़ुद अरक़ पोंछा जबीन-ए-आब-ए-हैवाँ का
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बराबर एक से मिस्रा नज़र आते हैं अबरू के
तवारुद कहिए या है एक में मज़मून चोरी का
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गुलगश्त-ए-बाग़ को जो गया वो गुल-ए-फ़रंग
ग़ुंचे सलाम करते थे टोपी उतार के
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बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
ये काजल हम ने यारा है चराग़-ए-माह-ए-ताबाँ पर
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दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
मतलब कोई क्या समझेगा मस्तों की ज़टल का
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आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को
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टैग : इंसान
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यार की फ़र्त-ए-नज़ाकत का हूँ मैं शुक्र-गुज़ार
ध्यान भी उस का मिरे दिल से निकलने न दिया
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