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Azhar Hashmi Sabqat's Photo'

अज़हर हाश्मी सबक़त

1990 | मुंगेर, भारत

अज़हर हाश्मी सबक़त के शेर

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मिलती है ख़ुशी सब को जैसे ही कहीं से भी

भूली हुइ बचपन की तस्वीर निकलती है

ये जो बेहाल सा मंज़र ये जो बीमार से हम तुम

सियासत की नवाज़िश है किसी से कुछ नहीं बोलें

ये तमन्ना है ख़ुदा आलम-ए-हस्ती में तिरे

मैं अयाँ देखना चाहूँ तो निहाँ तक देखूँ

बस रंज की है दास्ताँ उन्वान हज़ारों

जीने के लिए मर गए इंसान हज़ारों

देखा नहीं जिस ने मिरे तूफ़ाँ को सुकूँ में

वो शख़्स मिरी रूह के अंदर नहीं उतरा

उसी पे सब्र है मुझ को हर एक दौर यहाँ

बहार आने से पहले ख़िज़ाँ से गुज़रा है

कहीं सुराग़ नहीं है किसी भी क़ातिल का

लहूलुहान मगर शहर का नज़ारा है

गुमान कहता है के मैं यक़ीं का शाइ'र हूँ

यक़ीन कहता है के मैं गुमाँ का शाइ'र हूँ

सज्दे का सबब जान के शीरीं है परेशाँ

फ़रहाद ने कह डाला के रब ढूँड रहा हूँ

ख़ुदा की रज़ा है हासिल किसी को

ख़ुदा के लिए पर लड़ाई बहुत है

कोई हयात ज़माने को है अज़ीज़ बहुत

कोई हयात है कि रोज़ रोज़ मरती है

जिस ख़ाक से कहते हो वफ़ा हम नहीं करते

सोए हैं उसी ख़ाक में सुल्तान हज़ारों

दवाम पाएगा इक रोज़ हक़ ज़माने में

ये इंतिज़ार नहीं इंतिज़ार-ए-वहशत है

इतनी इंतिशार की हिद्दत हो रू-ब-रू

इंसाँ ग़म-ए-हयात में जलता दिखाई दे

मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है

इसी सनद से मुक़द्दर चमकता रहता है

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