बद्र वास्ती के शेर
क़ातिल की सारी साज़िशें नाकाम ही रहीं
चेहरा कुछ और खिल उठा ज़हराब गर पिया
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हर शख़्स को गुमान कि मंज़िल नहीं है दूर
ये तो बताइए कि पता किस के पास है
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अज़ाब होती हैं अक्सर शबाब की घड़ियाँ
गुलाब अपनी ही ख़ुश्बू से डरने लगते हैं
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फलदार दरख़्तों ने रिझाया तो मुझे भी
आज़ाद परिंदों के लिए शाख़-ओ-समर क्या
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लहू का आख़िरी क़तरा निचोड़ने पर भी
तक़ाज़े रेंगते रहते हैं रंग-ओ-बू के लिए
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आज-कल तो सब के सब टीवी के दीवाने हुए
वर्ना बच्चे तो लिया करते थे पागल के मज़े
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