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बशीर महताब के शेर

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जिसे मंज़िल समझ कर रुक गए हम

वहीं से अपना आग़ाज़-ए-सफ़र था

हसीं यादें वो बचपन की कहीं दिल से खो जाएँ

मैं अपने आशियाने में खिलौने अब भी रखता हूँ

मोहब्बत बाँटना सीखो मोहब्बत है अता रब की

मोहब्बत बाँटने वाले तवील-उल-उम्र होते हैं

ये बातों में नर्मी ये तहज़ीब-ओ-आदाब

सभी कुछ मिला हम को उर्दू ज़बाँ से

मुझ को अख़बार सी लगती हैं तुम्हारी बातें

हर नए रोज़ नया फ़ित्ना बयाँ करती हैं

शायद हमारे हिज्र में लफ़्ज़ों का हाथ था

इक लफ़्ज़-ए-ग़ैर ने तो पराया ही कर दिया

इन से वाबस्ता है मिरा बचपन

मैं खिलौनों की क़द्र करता हूँ

इक बेवफ़ा के प्यार में हद से गुज़र गए

काफ़िर के प्यार ने हमें काफ़िर बना दिया

इस तरह मुंसलिक हुआ उर्दू ज़बान से

मिलता हूँ अब सभी से बड़ी आजिज़ी के साथ

दीवाली की ख़ुशी थी पटाख़ों का शोर था

मैं कर रहा था उस की ख़मोशी से गुफ़्तुगू

यूँ मोहब्बत को उम्र-भर पढ़ना

ज़िंदगी इम्तिहान हो जैसे

आँख भर के मैं ने इक बार उसे देखा था

शहर वाले मिरी आँखों में उसे देखते हैं

मैं ने लगाया अपने गुनाहों का जब हिसाब

मुझ को फिर अपने आप से नफ़रत सी हो गई

इस दौर-ए-आख़िरी की जहालत तो देखिए

जिस की ज़बाँ-दराज़ हुकूमत उसी की है

तुम मिरे पास जब नहीं होते

धड़कनें एहतिजाज करती हैं

ज़िंदगी फ़न नहीं मदारी का

पानियों से दिए नहीं जलते

'महताब' हक़ीक़त से आगाह करो उन को

जो लोग नहीं समझे उर्दू का मक़ाम अब तक

देता रहा वो गालियाँ और मैं रहा ख़मोश

फिर यूँ हुआ कि वो मिरे क़दमों में गिर गया

ख़ाक डाली है मैं ने जज़्बों पर

कोई ज़ख़्म अब हरा नहीं होता

आठवाँ रंग क्या दिया उस ने

अब के ख़ुद रंग हो गया हूँ मैं

मैं हिसार-ए-ज़ुल्मत-ए-शब में हूँ जो भटक रहा हूँ गली गली

मुझे तीरगी से गिला नहीं मुझे रौशनी की तलाश है

अपनी कमर से आप ही बाँधे सफ़र तमाम

फिर यूँ हुआ कि मैं कभी अपना नहीं बना

मुझे मा'लूम है तुम गिर चुके हो

अब अपनी हार को मंज़ूर कर लो

शहर वाले नज़र आते हैं मोहज़्ज़ब मुझ को

यहाँ हर शख़्स है इक दर्द का दीवान लिए

'महताब' उम्र-भर भी होगा रफ़ू कभी

वो पल जो नफ़रतों ने उधेड़ा था एक दिन

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