फ़ैसल फ़हमी के शेर
पहले तमाम शहर को सहरा बनाएँगे
फिर वहशतों की रेत पे सोया करेंगे हम
किसी फ़र्द-ए-मोहब्बत से भला उम्मीद क्या रखना
मोहब्बत बेवफ़ा थी बेवफ़ा है बेवफ़ा होगी
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यही सब लोग हैं इन सब ने मिरा क़त्ल किया
ये मिरी क़ब्र को फूलों से सजाने वाले
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ता-उम्र तिफ़्ल-ए-दिल पे यतीमी का कर्ब था
कोशिश तो की मगर मैं कभी माँ न बन सका
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मैं अपने आप का सब से बड़ा मुख़ालिफ़ हूँ
मिरी ही तरह का इक शख़्स और है मुझ में
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तारीक सराबों की चका-चौंद में गुम-सुम
था सख़्त मुसलमान मैं ईमान से पहले
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बहता रहा मैं साहिल-ए-दुनिया की रेत पर
आख़िर बदन की ख़ाक समेटी तो घर गया
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इस दस्त-ए-इख़्तियार में इक जान ही तो थी
हम तुम पे अपनी जान को वारे चले गए
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