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पाकिस्तान की नई नस्ल की शाइरात में नुमायाँ

पाकिस्तान की नई नस्ल की शाइरात में नुमायाँ

फ़रीहा नक़वी के शेर

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हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं

इक दूजे को वक़्त नहीं दे पाते हैं

तुम्हारे रंग फीके पड़ गए नाँ?

मिरी आँखों की वीरानी के आगे

दे रहे हैं लोग मेरे दिल पे दस्तक बार बार

दिल मगर ये कह रहा है सिर्फ़ तू और सिर्फ़ तू

तुम्हें पता है मिरे हाथ की लकीरों में

तुम्हारे नाम के सारे हुरूफ़ बनते हैं

रात से एक सोच में गुम हूँ

किस बहाने तुझे कहूँ जा

तुम्हें पाने की हैसिय्यत नहीं है

मगर खोने की भी हिम्मत नहीं है

ज़माने अब तिरे मद्द-ए-मुक़ाबिल

कोई कमज़ोर सी औरत नहीं है

तुम मिरी वहशतों के साथी थे

कोई आसान था तुम्हें खोना?

उस की जानिब से बढ़ा एक क़दम

मेरे सौ साल बढ़ा देता है

हथेली से ठंडा धुआँ उठ रहा है

यही ख़्वाब हर मर्तबा देखती हूँ

मिरे हिज्र के फ़ैसले से डरो तुम

मैं ख़ुद में अजब हौसला देखती हूँ

लड़खड़ाना नहीं मुझे फिर भी

तुम मिरा हाथ थाम कर रखना

ऐन मुमकिन है उसे मुझ से मोहब्बत ही हो

दिल बहर-तौर उसे अपना बनाना चाहे

हम आज क़ौस-ए-क़ुज़ह के मानिंद एक दूजे पे खिल रहे हैं

मुझे तो पहले से लग रहा था ये आसमानों का सिलसिला है

भली क्यूँ लगे हम को ख़ुशियों की दस्तक

अभी हम मोहब्बत का ग़म कर रहे हैं

भला मैं ज़ख़्म खोल कर दिखाऊँ क्यों

उदास हूँ तो हूँ तुम्हें बताऊँ क्यों

मुझे फूल भेजने वाले

तू मिरी आदतें बिगाड़ेगा

वो ख़ुदा है तो भला उस से शिकायत कैसी?

मुक़्तदिर है वो सितम मुझ पे जो ढाना चाहे

वो तिरे शहर में आते ही धड़कना दिल का

हर गली यार मिरे तेरी गली हो जैसे

सोई हुई तड़प को फिर से जगा रहा है

कहता तो कुछ नहीं है बस याद रहा है

खुल कर आख़िर जहल का एलान होना चाहिए

हक़-परस्तों के लिए ज़िंदान होना चाहिए

किस किस फूल की शादाबी को मस्ख़ करोगे बोलो!!!

ये तो उस की देन है जिस को चाहे वो महकाए

सुन मिरे ख़्वाब में आने वाले

तुझ से जलते हैं ज़माने वाले

आप जैसों को रेआया झेलती है किस तरह

आप को तो सोच कर हैरान होना चाहिए

देख मैं याद कर रही हूँ तुझे

फिर मैं ये भी कर सकूँ जा

अंदर ऐसा हब्स था मैं ने खोल दिया दरवाज़ा

जिस ने दिल से जाना है वो ख़ामोशी से जाए

हम उदासी के इस दबिस्ताँ का

आख़िरी मुस्तनद हवाला हैं

आँख और बादल दोनों टूट के रोते हैं

जाने इन का आपस में क्या रिश्ता है

मिरे अश्कों की ले कर रौशनाई

ज़माना शेर लिखता जा रहा था

दिल में सोए सारे दर्द जगाता है

बिन मौसम की बारिश ऐसा नौहा है

मिरा दिल जल रहा है रौशनी से

ज़माना फ़ैज़ पाता जा रहा है

शाम हुई तो घर की हर इक शय पर कर झपटे

आँगन की दहलीज़ पे बैठे वीरानी के साए

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