ग़ुलाम भीक नैरंग के शेर
कहते हैं ईद है आज अपनी भी ईद होती
हम को अगर मयस्सर जानाँ की दीद होती
दर्द उल्फ़त का न हो तो ज़िंदगी का क्या मज़ा
आह-ओ-ज़ारी ज़िंदगी है बे-क़रारी ज़िंदगी
आह! कल तक वो नवाज़िश! आज इतनी बे-रुख़ी
कुछ तो निस्बत चाहिए अंजाम को आग़ाज़ से
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मेरे पहलू में तुम आओ ये कहाँ मेरे नसीब
ये भी क्या कम है तसव्वुर में तो आ जाते हो
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नाज़ ने फिर किया आग़ाज़ वो अंदाज़-ए-नियाज़
हुस्न-ए-जाँ-सोज़ को फिर सोज़ का दावा है वही
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महव-ए-दीद-ए-चमन-ए-शौक़ है फिर दीदा-ए-शौक़
गुल-ए-शादाब वही बुलबुल-ए-शैदा है वही
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दाना-ओ-दाम सँभाला मिरे सय्याद ने फिर
अपनी गर्दन है वही इश्क़ का फंदा है वही
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