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हकीम मंज़ूर

1937

हकीम मंज़ूर के शेर

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शहर के आईन में ये मद भी लिक्खी जाएगी

ज़िंदा रहना है तो क़ातिल की सिफ़ारिश चाहिए

हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया

वो ज़िंदगी को ये कैसा अज़ाब दे के गया

हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं

उस को क्या पहचानिये जिस का कोई चेहरा हो

गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम

इस आसमाँ से नहीं और कुछ उतरने का

मुझ में थे जितने ऐब वो मेरे क़लम ने लिख दिए

मुझ में था जितना हुस्न वो मेरे हुनर में गुम हुआ

तेरी आँखों में आँसू भी देखे हैं

तेरे हाथों में देखा है ख़ंजर भी

अपनी नज़र से टूट कर अपनी नज़र में गुम हुआ

वो बड़ा बा-शुऊर था अपने ही घर में गुम हुआ

इतना बदल गया हूँ कि पहचानने मुझे

आएगा वो तो ख़ुद से गुज़र कर ही आएगा

बाग़ में होना ही शायद सेब की पहचान थी

अब कि वो बाज़ार में है अब तो बिकना है उसे

अगरचे उस की हर इक बात खुरदुरी है बहुत

मुझे पसंद है ढंग उस के बात करने का

जो मेरे पास था सब लूट ले गया कोई

किवाड़ बंद रखूँ अब मुझे है डर किस का

तुझ पे खुल जाएँगे ख़ुद अपने भी असरार कई

तू ज़रा मुझ को भी रख अपने बराबर में कभी

जाने किस लिए रोता हूँ हँसते हँसते मैं

बसा हुआ है निगाहों में आईना कोई

देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे

इतना बे-बस भी कहाँ होगा कोई घर में कभी

छोड़ कर बार-ए-सदा वो बे-सदा हो जाएगा

वहम था मेरा कि पत्थर आईना हो जाएगा

रेज़ा रेज़ा रात भर जो ख़ौफ़ से होता रहा

दिन को साँसों पर अभी तक बोझ उस पत्थर का है

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