हनीफ़ कैफ़ी के शेर
मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
फिर कोई और न आया नज़र आईने में
अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
ख़ुद मिरी मौत का मातम है मिरे जीने में
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टैग : मौत
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अना अना के मुक़ाबिल है राह कैसे खुले
तअल्लुक़ात में हाइल है बात की दीवार
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तमाम आलम से मोड़ कर मुँह मैं अपने अंदर समा गया हूँ
मुझे न आवाज़ दे ज़माने मैं अपनी आवाज़ सुन रहा हूँ
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मिले वो लम्हा जिसे अपना कह सकें 'कैफ़ी'
गुज़र रहे हैं इसी जुस्तुजू में माह-ओ-साल
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अपनी जानिब नहीं अब लौटना मुमकिन मेरा
ढल गया हूँ मैं सरापा तिरे आईने में
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शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर 'कैफ़ी'
हुई सहर के उजालों में गुम चराग़ की लौ
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टैग : हिज्र
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मिरे ख़ुलूस का यारों ने आसरा ले कर
किया है ख़ूब मिरी दोस्ती का इस्तेहसाल
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बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं
मिरी निगाह ने कितने सराब देखे हैं
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सब नज़र आते हैं चेहरे गर्द गर्द
क्या हुए बे-आब आईने तमाम
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कोई भी रुत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें
जो मौसम आया है उस के इताब देखे हैं
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