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हनीफ़ फ़ौक़ के शेर

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इक जनम के प्यासे भी सैर हों तो हम जानें

यूँ तो रहमत-ए-यज़्दाँ चार-सू बरसती है

वक़्त की लाश पे रोने को जिगर है किस का

किस जनाज़े को लिए अहल-ए-नज़र आते हैं

उदास रातों की तीरगी में कोई तारा कोई जुगनू

किसी का नक़्श-ए-क़दम ही चमके तो नूर का ए'तिबार आए

चश्म-ए-नर्गिस को हवस है कि चमन में देखे

आतिश-ए-गुल के भड़कने का समाँ क्या होगा

फिर मशिय्यत से उलझती है मिरी दीवानगी

नाला-ए-शब-गीर अश्कों के गुहर काफ़ी नहीं

शाम की भीगी हुई पलकों में फिर

कोई आँसू आए और तारा बने

कितनी नादीदा बहारों की तमन्ना-ए-जवाँ

दामन-ए-जाँ में मिरे आग लगा देती है

छोड़ा सर्द झोंकों ने वफ़ा को

जो शाख़-ए-दर्द की तन्हा कली थी

मैं तेरी जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से काँप जाता हों

अगरचे दिल को ग़म-ए-दो-जहाँ से डर भी नहीं

उन्हें क्या फ़िक्र कि पूछें दिल-ए-बीमार का हाल

बे-नियाज़ाना वो अंदाज़-ए-सुख़न है कि जो था

मैं ने अपनी पलकों पर ग़म-कदे सजाए हैं

आरज़ू के मातम में सोगवार हस्ती है

तोड़ डालें हम निज़ाम-ए-ख़स्तगी

ये जहान-ए-कोहना दोबारा बने

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