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हक़ीर के शेर

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जानता उस को हूँ दवा की तरह

चाहता उस को हूँ शिफ़ा की तरह

क्या जानें उन की चाल में एजाज़ है कि सेहर

वो भी उन्हीं से मिल गए जो थे हमारे लोग

टूटें वो सर जिस में तेरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं

फूटें वो आँखें कि जिन को दीद का लपका नहीं

ख़ूब मिल कर गले से रो लेना

इस से दिल की सफ़ाई होती है

या उस से जवाब-ए-ख़त लाना या क़ासिद इतना कह देना

बचने का नहीं बीमार तिरा इरशाद अगर कुछ भी हुआ

थोड़ी तकलीफ़ सही आने में

दो घड़ी बैठ के उठ जाइएगा

मुझे अब मौत बेहतर ज़िंदगी से

वो की तुम ने सितमगारी कि तौबा

की किसी पर जफ़ा मेरे बा'द

ख़ूब रोए वो सुना मेरे बा'द

खुली जो आँख मिरी सामना क़ज़ा से हुआ

जो आँख बंद हुई साबिक़ा ख़ुदा से हुआ

इश्क़ के फंदे से बचिए 'हक़ीर'-ए-ख़स्ता-दिल

इस का है आग़ाज़ शीरीं और है अंजाम तल्ख़

चार दिन की बहार है सारी

ये तकब्बुर है यार-ए-जानी हेच

छा गई एक मुसीबत की घटा चार तरफ़

खुले बालों जो वो दरिया से नहा कर निकले

बंद-ए-क़बा पे हाथ है शरमाए जाते हैं

कमसिन हैं ज़िक्र-ए-वस्ल से घबराए जाते हैं

साक़िया ऐसा पिला दे मय का मुझ को जाम तल्ख़

ज़िंदगी दुश्वार हो और हो मुझे आराम तल्ख़

बुत को पूजूँगा सनम-ख़ानों में जा जा के तो मैं

उस के पीछे मिरा ईमान रहे या रहे

हक़ारत की निगाहों से फ़र्श-ए-ख़ाक को देखो

अमीरों का फ़क़ीरों का यही आख़िर को बिस्तर है

देखा बग़ौर ऐब से ख़ाली नहीं कोई

बज़्म-ए-जहाँ में सब हैं ख़ुदा के सँवारे लोग

ब-ख़ुदा सज्दे करेगा वो बिठा कर बुत को

अब 'हक़ीर' आगे मुसलमान रहे या रहे

यक-ब-यक तर्क करना था मोहब्बत मुझ से

ख़ैर जिस तरह से आता था वो आता जाता

बुत-कदे में भी गया का'बे की जानिब भी गया

अब कहाँ ढूँढने तुझ को तिरा शैदा जाता

क्यूँ का'बे को कहूँ अल्लाह का और बुत का घर

वो भी मेरे दिल में है और ये भी मेरे दिल में है

जब से कुछ क़ाबू है अपना काकुल-ए-ख़मदार पर

साँप हर दम लोटता है सीना-ए-अग़्यार पर

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