इफ़्तिख़ार राग़िब के शेर
पढ़ता रहता हूँ आप का चेहरा
अच्छी लगती है ये किताब मुझे
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इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो
उलझन ही में मर जाएगा बीमार नहीं तो
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दिन में आने लगे हैं ख़्वाब मुझे
उस ने भेजा है इक गुलाब मुझे
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चंद यादें हैं चंद सपने हैं
अपने हिस्से में और क्या है जी
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सख़्त-जानी की बदौलत अब भी हम हैं ताज़ा-दम
ख़ुश्क हो जाते हैं वर्ना पेड़ हिल जाने के बाद
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जी चाहता है जीना जज़्बात के मुताबिक़
हालात कर रहे हैं हालात के मुताबिक़
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इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ मैं
हँस के तुझ से बिछड़ रहा हूँ मैं
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इस शोख़ी-ए-गुफ़्तार पर आता है बहुत प्यार
जब प्यार से कहते हैं वो शैतान कहीं का
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तुम ने रस्मन मुझे सलाम किया
लोग क्या क्या गुमान कर बैठे
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क्या बताऊँ कि कितनी शिद्दत से
तुम से मिलने को चाहता है जी
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राय उस पर मत करो क़ाएम कोई
जानते जिस को नहीं नज़दीक से
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ले जाए जहाँ चाहे हवा हम को उड़ा कर
टूटे हुए पत्तों की हिकायत ही अलग है
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एक मौसम की कसक है दिल में दफ़्न
मीठा मीठा दर्द सा है मुस्तक़िल
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किस किस को बताऊँ कि मैं बुज़दिल नहीं 'राग़िब'
इस दौर में मफ़्हूम-ए-शराफ़त ही अलग है
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बे-सबब 'राग़िब' तड़प उठता है दिल
दिल को समझाना पड़ेगा ठीक से
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दिल में कुछ भी तो न रह जाएगा
जब तिरी चाह निकल जाएगी
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ये वस्ल की रुत है कि जुदाई का है मौसम
ये गुलशन-ए-दिल है कि बयाबान कहीं का
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'राग़िब' वो मेरी फ़िक्र में ख़ुद को भी भूल जाएँ
ऐसी तो कोई बात नहीं चाहता था मैं
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क्या बताऊँ दिल में किस की याद का
एक काँटा चुभ रहा है मुस्तक़िल
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तक़दीर-ए-वफ़ा का फूट जाना
मैं भूला न दिल का टूट जाना
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वो कहते हैं कि 'राग़िब' तुम नहीं रखते ख़याल अपना
मैं कहता हूँ कि हर दम फ़िक्र दामन-गीर किस की है
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