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इफ़्तिख़ार राग़िब

1973 | क़तर

इफ़्तिख़ार राग़िब के शेर

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पढ़ता रहता हूँ आप का चेहरा

अच्छी लगती है ये किताब मुझे

इंकार ही कर दीजिए इक़रार नहीं तो

उलझन ही में मर जाएगा बीमार नहीं तो

दिन में आने लगे हैं ख़्वाब मुझे

उस ने भेजा है इक गुलाब मुझे

चंद यादें हैं चंद सपने हैं

अपने हिस्से में और क्या है जी

सख़्त-जानी की बदौलत अब भी हम हैं ताज़ा-दम

ख़ुश्क हो जाते हैं वर्ना पेड़ हिल जाने के बाद

जी चाहता है जीना जज़्बात के मुताबिक़

हालात कर रहे हैं हालात के मुताबिक़

इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ मैं

हँस के तुझ से बिछड़ रहा हूँ मैं

इस शोख़ी-ए-गुफ़्तार पर आता है बहुत प्यार

जब प्यार से कहते हैं वो शैतान कहीं का

तुम ने रस्मन मुझे सलाम किया

लोग क्या क्या गुमान कर बैठे

क्या बताऊँ कि कितनी शिद्दत से

तुम से मिलने को चाहता है जी

राय उस पर मत करो क़ाएम कोई

जानते जिस को नहीं नज़दीक से

ले जाए जहाँ चाहे हवा हम को उड़ा कर

टूटे हुए पत्तों की हिकायत ही अलग है

एक मौसम की कसक है दिल में दफ़्न

मीठा मीठा दर्द सा है मुस्तक़िल

किस किस को बताऊँ कि मैं बुज़दिल नहीं 'राग़िब'

इस दौर में मफ़्हूम-ए-शराफ़त ही अलग है

बे-सबब 'राग़िब' तड़प उठता है दिल

दिल को समझाना पड़ेगा ठीक से

दिल में कुछ भी तो रह जाएगा

जब तिरी चाह निकल जाएगी

ये वस्ल की रुत है कि जुदाई का है मौसम

ये गुलशन-ए-दिल है कि बयाबान कहीं का

'राग़िब' वो मेरी फ़िक्र में ख़ुद को भी भूल जाएँ

ऐसी तो कोई बात नहीं चाहता था मैं

क्या बताऊँ दिल में किस की याद का

एक काँटा चुभ रहा है मुस्तक़िल

तक़दीर-ए-वफ़ा का फूट जाना

मैं भूला दिल का टूट जाना

वो कहते हैं कि 'राग़िब' तुम नहीं रखते ख़याल अपना

मैं कहता हूँ कि हर दम फ़िक्र दामन-गीर किस की है

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