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इक़बाल कौसर

इक़बाल कौसर के शेर

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जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं

आज कल हम तिरे बारे में बहुत सोचते हैं

तिरी पहली दीद के साथ ही वो फ़ुसूँ भी था

तुझे देख कर तुझे देखना मुझे गया

ज़ियान-ए-दिल ही इस बाज़ार में सूद-ए-मोहब्बत है

यहाँ है फ़ाएदा ख़ुद को अगर नुक़सान में रख लें

वो भी रो रो के बुझा डाला है अब आँखों ने

रौशनी देता था जो एक दिया अंदर से

बनना था तो बनता फ़रिश्ता ख़ुदा मैं

इंसान ही बनता मिरी तकमील तो ये थी

मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया

मैं जब सका शुमार में मुझे बे-शुमार बना दिया

अब बाँझ ज़मीनों से उम्मीद भी क्या रखना

रोएँ भी तो ला-हासिल बोएँ भी तो क्या काटें

तिरे जुज़्व जुज़्व ख़याल को रग-ए-जाँ में पूरा उतार कर

वो जो बार बार की शक्ल थी उसे एक बार बना दिया

पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ

दम जितना मयस्सर है ये ठहरी हवा काटें

ध्यान आया मुझे रात की तन्हा-सफ़री का

यक-दम कोई साया सा गली से निकल आया

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