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इक़बाल ख़ावर के शेर

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बहुत हैरत-ज़दा है आइना भी

कि चेहरे पर कोई चेहरा नहीं है

नींद मत ढूँड मेरी आँखों में

सिलवटें देख मेरे बिस्तर पर

उस को मतलब का जब मिला मौसम

रंग उस के थे देखने वाले

तू भी देखेगा ज़रा रंग उतर लें तेरे

हम ही रखते हैं तुझे याद कि सब रखते हैं

ये उस के लम्स का जादू नहीं तो फिर क्या है

हवा ने चूमा है मुझ को गले मिली है शाम

क्यों मिरी दास्ताँ का हिस्सा हैं

जो मिरी दास्ताँ के थे ही नहीं

ऐसा हूँ बद-गुमान कि दस्तक तो उस ने दी

लेकिन मिरा ख़याल हवा की तरफ़ गया

ये गवाही तिरे सफ़र की है

ये थकन क्यों उतारता है मियाँ

सुलूक ऐसा नहीं उस का फिर भी जाने क्यों

वो याद आए तो दिल से दुआ निकलती है

मोहब्बत ऐसा दरवाज़ा है 'ख़ावर'

हर इक दस्तक पे जो खुलता नहीं है

इज़हार की ये भी सूरत थी

ख़ामोशी को फ़रियाद किया

आइने पर कोई तोहमत धरो

ख़ाल-ओ-ख़द अपने सँवारो साहब

तुम ने बहता दरिया देखा और मैं ने

पानी पर इक अक्स ठहरते देखा है

बहुत वो साथ रहा है बहुत है याद मुझे

उसे भुलाने को 'ख़ावर' ये ज़िंदगी कम है

इक तिरे इश्क़ के हवाले से

काम कितने यहाँ निकल आए

कैसे कैसे मोड़ आए

उम्र की एक कहानी में

मेरी वहशत तो मियाँ मुझ में थी

ये जो सहरा है कहाँ था पहले

खुला था लफ़्ज़ भी जादू-मिसाल होते हैं

वो जब गुलाब हुआ था गुलाब कहने से

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