जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर के शेर
तू ने ही रह न दिखाई तो दिखाएगा कौन
हम तिरी राह में गुमराह हुए बैठे हैं
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है फ़हम उस का जो हर इंसान के दिल की ज़बाँ समझे
सुख़न वो है जिसे हर शख़्स अपना ही बयाँ समझे
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मोहब्बत में नहीं है इब्तिदा या इंतिहा कोई
हम अपने इश्क़ को ही इश्क़ की मंज़िल समझते हैं
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आँखों आँखों में पिला दी मिरे साक़ी ने मुझे
ख़ौफ़-ए-ज़िल्लत है न अंदेशा-ए-रुस्वाई है
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क़ुदरत की बरकतें हैं ख़ज़ाना बसंत का
क्या ख़ूब क्या अजीब ज़माना बसंत का
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हर शय में हर बशर में नज़र आ रहा है तू
सज्दे में अपने सर को झुकाऊँ कहाँ कहाँ
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कैसी कशिश है इश्क़ के टूटे मज़ार में
मेला लगा हुआ है हमारे दयार में
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छुपे हैं सात पर्दों में ये सब कहने की बातें हैं
उन्हें मेरी निगाहों ने जहाँ ढूँडा वहाँ निकले
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मोहब्बत सी शय उस ने मुझ को अता की
कि ख़ुश ख़ुश चलूँ उम्र बर्बाद कर के
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हम रू-ब-रू-ए-शम्अ हैं इस इंतिज़ार में
कुछ जाँ परों में आए तो उड़ कर निसार हों
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सुख़न-साज़ी में लाज़िम है कमाल-ए-इल्म-ओ-फ़न होना
महज़ तुक-बंदियों से कोई शाएर हो नहीं सकता
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फ़रिश्ता हर बशर को हर ज़मीं को आसमाँ समझे
कि हम तो इश्क़ में दुनिया को ही जन्नत-निशाँ समझे
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दोज़ख़ से भी ख़राब कहूँ मैं बहिश्त को
दो-चार अगर वहाँ पे भी सरमाया-दार हों
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ज़माना ये आ गया है 'रहबर' कि अहल-ए-बीनश को कौन पूछे
जमे हैं मक्कार कुर्सियों पर दिखा रहे हैं गंवार आँखें
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दिल उस का जिगर उस का है जाँ उस की हम उस के
किस बात से इंकार किया जाए किसी को
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दिल को बहुत अज़ीज़ है आना बसंत का
'रहबर' की ज़िंदगी में समाना बसंत का
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आया उन्हें पसंद तो उन का ही हो गया
कम था हमारे दिल से हमारा कलाम क्या
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एक आँसू भी अगर रो दे तो जानूँ तुझ को
मेरी तक़दीर मुझे देख कर हँसती क्या है
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फिर वही सौदा वही वहशत वही तर्ज़-ए-जुनूँ
हैं निशाँ मौजूद सारे इश्क़ की तासीर के
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महव-ए-दीदार हुए जाते हैं रह-रौ सारे
इक तमाशा हुआ गोया रुख़-ए-दिलबर न हुआ
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खिंचते जाते हैं ख़ुद मिरी जानिब
मुझ को ज्यूँ ज्यूँ वो आज़माते हैं
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तस्वीर-ए-रू-ए-यार दिखाना बसंत का
अटखेलियों से दिल को लुभाना बसंत का
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पैग़ाम-ए-लुत्फ़-ए-ख़ास सुनाना बसंत का
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-आम बहाना बसंत का
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तंग पैमाई का शिकवा साक़ी-ए-अज़ली से किया
हम ने समझा ही नहीं दस्तूर-ए-मय-ख़ाना अभी
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रश्क-ए-जिनाँ चमन को बनाना बसंत का
हर हर कली में रंग दिखाना बसंत का
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हर सम्त सब्ज़ा-ज़ार बिछाना बसंत का
फूलों में रंग-ओ-बू को लुटाना बसंत का
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वही सिफ़तें जो बतलाता है तू वाइज़ सब उस में हैं
दिया है जिस को दिल हम ने वही तेरा ख़ुदा होगा
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