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कल्ब-ए-हुसैन नादिर

1805 - 1878

कल्ब-ए-हुसैन नादिर के शेर

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ख़ंजर उठेगा तलवार इन से

ये बाज़ू मिरे आज़माए हुए हैं

लोग कहते हैं कि फ़न्न-ए-शाइरी मनहूस है

शेर कहते कहते मैं डिप्टी कलेक्टर हो गया

पूरा करेंगे होली में क्या वादा-ए-विसाल

जिन को अभी बसंत की दिल ख़बर नहीं

तिरी तारीफ़ हो साहिब-ए-औसाफ़ क्या मुमकिन

ज़बानों से दहानों से तकल्लुम से बयानों से

हो गए राम जो तुम ग़ैर से जान-ए-जहाँ

जल रही है दिल-ए-पुर-नूर की लंका देखो

चलती तो है पर शोख़ी-ए-रफ़्तार कहाँ है

तलवार में पाज़ेब की झंकार कहाँ है

सब्ज़ कपड़ों में सियह-ज़ुल्फ़ की ज़ेबाई है

धान के खेत में क्या काली घटा छाई है

हैं दीन के पाबंद दुनिया के मुक़य्यद

क्या इश्क़ ने इस भूल-भुलय्याँ से निकाला

दरिया-ए-शराब उस ने बहाया है हमेशा

साक़ी से जो कश्ती के तलबगार हुए हैं

फिर बाक़ी रहे ग़ुबार कभी

होली खेलो जो ख़ाकसारों में

नाव काग़ज़ की तन-ए-ख़ाकी-ए-इंसाँ समझो

ग़र्क़ हो जाएँगी छींटा जो पड़ा पानी का

चालीस जाम पी के दिया एक जाम-ए-मय

साक़ी ने ख़ूब राह निकाली ज़कात की

इक बात पर क़रार उन्हें रात-भर नहीं

दो दो पहर जो हाँ है तो दो दो पहर नहीं

अगर उन को पूजा तो क्या कुफ़्र होगा

कि बुत भी ख़ुदा के बनाए हुए हैं

इस क़दर महव हों आप ख़ुद-आराई में

दाग़ लग जाए आईना-ए-यकताई में

तू जो तलवार से नहलाए लहू में मुझ को

ग़ुस्ल-ए-सेह्हत हुआ भी इश्क़ की बीमारी से

उन को उश्शाक़ ही के दिल की नहीं है तख़सीस

कोई शीशा हो परी बन के उतर जाते हैं

वो और मरज़ हैं कि शिफ़ा होती है जिन से

अच्छे कहीं उन आँखों के बीमार हुए हैं

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