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ख़ुर्शीद तलब

बोकारो, भारत

ख़ुर्शीद तलब के शेर

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कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से

मगर सभी को शिकायत हवा से होती है

रोज़ दीवार में चुन देता हूँ मैं अपनी अना

रोज़ वो तोड़ के दीवार निकल आती है

हमें हर वक़्त ये एहसास दामन-गीर रहता है

पड़े हैं ढेर सारे काम और मोहलत ज़रा सी है

मिरी मुश्किल मिरी मुश्किल नहीं है

वसीला तेरी आसानी का मैं हूँ

ख़ुदा ने बख़्शा है क्या ज़र्फ़ मोम-बत्ती को

पिघलते रहना मगर सारी रात चुप रहना

हवा तो है ही मुख़ालिफ़ मुझे डराता है क्या

हवा से पूछ के कोई दिए जलाता है क्या

अज़ीज़ो आओ अब इक अल-विदाई जश्न कर लें

कि इस के ब'अद इक लम्बा सफ़र अफ़सोस का है

ज़िंदगी में जो तुम्हें ख़ुद से ज़ियादा थे अज़ीज़

उन से मिलने क्या कभी जाते हो क़ब्रिस्तान भी

बहुत नुक़सान होता है

ज़ियादा होशियारी में

कभी दिमाग़ को ख़ातिर में हम ने लाया नहीं

हम अहल-ए-दिल थे हमेशा रहे ख़सारे में

ज़मीनें तंग हुई जा रही हैं दिल की तरह

हम अब मकान नहीं मक़बरा बनाते हैं

उस ने कर हाथ माथे पर रखा

और मिनटों में बुख़ार उड़ता हुआ

कि हम बने ही थे एक दूसरे के लिए

अब इस यक़ीन को जीना हयात करते हुए

'तलब' बड़ी ही अज़िय्यत का काम होता है

बिखरते टूटते रिश्तों का बोझ ढोना भी

आइए बीच की दीवार गिरा देते हैं

कब से इक मसअला बे-कार में उलझा हुआ है

कहीं भी जाएँ किसी शहर में सुकूनत हो

हम अपनी तर्ज़ की आब हवा बनाते हैं

आज दरिया में अजब शोर अजब हलचल है

किस की कश्ती ने क़दम आब-ए-रवाँ पर रक्खा

हवा से कह दो कि कुछ देर को ठहर जाए

ख़जिल हमारी इबारत हवा से होती है

सब एक धुँद लिए फिर रहे हैं आँखों में

किसी के चेहरे पे माज़ी हाल देखता हूँ

सब ने देखा और सब ख़ामोश थे

एक सूफ़ी का मज़ार उड़ता हुआ

हर एक अहद ने लिक्खा है अपना नामा-ए-शौक़

किसी ने ख़ूँ से लिखा है किसी ने आँसू से

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