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मिर्ज़ा अज़फ़री

दिल्ली, भारत

मिर्ज़ा अज़फ़री के शेर

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हम गुनहगारों के क्या ख़ून का फीका था रंग

मेहंदी किस वास्ते हाथों पे रचाई प्यारे

तेरे मिज़्गाँ की क्या करूँ तारीफ़

तीर ये बे-कमान जाता है

हम फ़रामोश की फ़रामोशी

और तुम याद उम्र भर भूले

कौन कहता है कि तू ने हमें हट कर मारा

दिल झपट आँख लड़ा नज़रों से डट कर मारा

हम इश्क़ तेरे हाथ से क्या क्या देखीं हालतें

देख आब-दीदा ख़ूँ हो ख़ून-ए-जिगर पानी कर

किस ज़माने की ये दुश्मन थी मिरी

इस मोहब्बत का हो मुँह काला मियाँ

मुसव्विर शिताब हो कि अभी

उस का नक़्शा धियान में कुछ है

ये दीवाने हैं महव-ए-दीद दिलबर

नहीं कुछ मानते याँ को वाँ को

जिलाओ मारो दुरकारो बुला लो गालियाँ दे लो

करो जो चाहो हम किस बात से इकराह रखते हैं

रफ़ू जेब-ए-मजनूँ हुआ कब नासेह

तू मर जाएगा उस के सीते ही सीते

हम इश्क़ तेरे हाथ से क्या क्या देखीं हालतें

देख अब ये दीदा ख़ूँ हो ख़ून-ए-जिगर पानी कर

काकुल नहीं लटकते कुछ उन की छातियों पर

चौकाँ से ये खिलंडरे गेंदें उछालते हैं

बह चुका ख़ून-ए-दिल आँख तक पहुँचा सैल

रोए जा और भी दीदा-ए-तर देखें तो

क़सम मय की मुझ बिन है मेरे लहू की

जो हम बिन पियो तो हमारा लहू है

धानी जूड़े पे तिरे साँवले मैं मरता हूँ

मर भी जाऊँ तो कफ़न देख के काही देना

जो आया यार तो तू हो चला ग़श दिवाने दिल

इसी दम तुझ को मरना था बता क्या तुझ को धाड़ आई

ताक लागी तिरी दुख़्तर से हमारी ताक

आज शब जी में है घर तेरे ये दामाद रहे

ओसों गई है प्यास कहीं दीदा-ए-नमीं

बुझता है आँसुओं से कहाँ दिल फुंका हुआ

है जानी तुझ में सब ख़ूबी जाँ सा

तू इक दम में बिछड़ जाता है मुझ से

शिताबी अपने दीवाने को कर बंद

मुसलसल ज़ुल्फ़ से कर या नज़र-बंद

वो उठा कर यक क़दम आया गाह

हम क़लम साँ उस के, सर के भल गए

बे-ग़मी तर्क-ए-आलाइक़ है सदा 'अज़फ़रिया'

जिस को दुनिया से इलाक़ा नहीं ग़मनाक नहीं

'अज़फ़री' ग़ुंचा-ए-दिल बंद और आई है बहार

सैर-ए-गुल को कि ये शायद ब-तकल्लुफ़ खिल ले

सूनी गई में हुई यार से मुढभेड़ आज

पूछो कोई किस लिए मुँह पे कर ओझल गया

दिल लिया ताब-ओ-तवाँ ले चुका जाँ भी ले ले

पाक कर डाल बखेड़ा ये सभी झंझट का

अतारिद ज़ुहल-ए-नहिस से टुक माँग मिदाद

बख़्त का माजरा लिखता हूँ सियाही देना

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