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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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मोहम्मद अहमद रम्ज़

1932 - 2010 | कानपुर, भारत

नई ग़ज़ल के प्रतिष्ठित शायर

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मोहम्मद अहमद रम्ज़ के शेर

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हर्फ़ को लफ़्ज़ कर लफ़्ज़ को इज़हार दे

कोई तस्वीर मुकम्मल बना उस के लिए

तुम गए हो तुम मुझ को ज़रा सँभलने दो

अभी तो नश्शा सा आँखों में इंतिज़ार का है

अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया

उस के होंटों पर चाहत का फूल खिला भी कितनी देर

उस का तरकश ख़ाली होने वाला है

मेरे नाम का तीर है कितने तीरों में

जैसे ख़ला के पस-मंज़र में रंग रंग के नक़्श-ओ-निगार

बातें उस की वज़्न से ख़ाली लहजा भारी-भरकम है

अल्फ़ाज़ की गिरफ़्त से है मावरा हनूज़

इक बात कह गया वो मगर कितने काम की

इक सच की आवाज़ में हैं जीने के हज़ार आहंग

लश्कर की कसरत पे जाना बैअत मत करना

कौन पूछे मुझ से मेरी गोशा-गीरी का सबब

कौन समझे दर कभी दीवार कर लेना मिरा

'रम्ज़' अधूरे ख़्वाबों की ये घटती बढ़ती छाँव

तुम से देखी जाए तो देखो मुझ से देखी जाए

सारे इम्कानात में रौशन सिर्फ़ यही दो पहलू

एक तिरा आईना-ख़ाना इक मेरी हैरानी

और कोई दुनिया है तेरी जिस की खोज करूँ

ज़ेहन में फिर इक सम्त बिखेरी राहगुज़र डाली

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