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नातिक़ गुलावठी

1886 - 1969 | नागपुर, भारत

नातिक़ गुलावठी के शेर

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खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को

बात किस की रह गई कोई अदू सच्चा हम

अब मैं क्या तुम से अपना हाल कहूँ

ब-ख़ुदा याद भी नहीं मुझ को

जुनूँ बाइस-ए-बद-हाली-ए-सहरा क्या है

ये मिरा घर तो नहीं था कि जो वीराँ होता

रखता है तल्ख़-काम ग़म-ए-लज़्ज़त-ए-जहाँ

क्या कीजिए कि लुत्फ़ नहीं कुछ गुनाह का

उम्र भर का साथ मिट्टी में मिला

हम चले जिस्म-ए-बे-जाँ अलविदाअ'

कुछ नहीं अच्छा तो दुनिया में बुरा भी कुछ नहीं

कीजिए सब कुछ मगर अपनी ज़रूरत देख कर

कर मुरत्तब कुछ नए अंदाज़ से अपना बयाँ

मरने वाले ज़िंदगी चाहे तो अफ़्साने में

मुझ को मालूम हुआ अब कि ज़माना तुम हो

मिल गई राह-ए-सुकूँ गर्दिश-ए-दौराँ के क़रीब

जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ज़हे अंदाज़-ए-जवाब

आती जाती है अब इस बुत की नहीं हाँ के क़रीब

नाज़ उधर दिल को उड़ा लेने की घातों में रहा

मैं इधर चश्म-ए-सुख़न-गो तिरी बातों में रहा

रहती है शम्स-ओ-क़मर को तिरे साए की तलाश

रौशनी ढूँढती फिरती है अँधेरा तेरा

ज़िंदगी जुनूँ सही बे-ख़ुदी सही

तू कुछ भी अपनी अक़्ल से पागल उठा तो ला

खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त

अजल कब तक रहेंगे रहन-ए-आब-ओ-दाना हम

ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया

बुत ने घबरा के कहा मुझ से कि क़ुरआन उठा

हाँ ये तो बता दिल-ए-महरूम-ए-तमन्ना

अब भी कोई होता है कि अरमाँ नहीं होता

इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो

जाने दो गए शिकवे जाओ मैं बाज़ आया

जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'

मेरी मुश्किल का तरीक़ा नहीं आसाँ होना

तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को

सलीक़ा बंदा-परवर चाहिए बंदा-नवाज़ी का

पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर

मस्जिद में जा निकलते हैं चोरी-छुपी से हम

वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी

जहाँ चश्म-ए-करम से ख़ुद-ब-ख़ुद कुछ काम होना था

क्या करूँ दिल-ए-मायूस ज़रा ये तो बता

क्या किया करते हैं सदमों से हिरासाँ हो कर

निगाह-ए-मस्त उस का नाम है कैफ़-ए-सुरूर

आज तू ने देख कर मेरी तरफ़ देखा मुझे

मिल गए तुम हाथ उठा कर मुझ को सब कुछ मिल गया

आज तो घर लूट लाई है दुआ तासीर की

कीजिए कार-ए-ख़ैर में हाजत-ए-इस्तिख़ारा क्या

कीजिए शग़्ल-ए-मय-कशी इस में किसी की राय क्यूँ

उम्र-ए-रफ़्ता हश्र के दम-ख़म भी देख लें

तूफ़ान-ए-ज़िंदगी की वो हलचल उठा तो ला

हाथ रहते हैं कई दिन से गरेबाँ के क़रीब

भूल जा ख़ुद को कि है मअरिफ़त-ए-नफ़्स यही

तुम्हारी बात का इतना है ए'तिबार हमें

कि एक बात नहीं ए'तिबार के क़ाबिल

हमारे ऐब में जिस से मदद मिले हम को

हमें है आज कल ऐसे किसी हुनर की तलाश

अब गर्दिश-ए-दौराँ को ले आते हैं क़ाबू में

हम दौर चलाते हैं साक़ी से कहो मय ला

हाँ जान तो देंगे मगर मौत अभी दम ले

ऐसा कहें वो कि हम आए तो चले आप

कौन इस रंग से जामे से हुआ था बाहर

किस से सीखा तिरी तलवार ने उर्यां होना

आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का

पास वहशत नहीं घर दूर है दीवाने का

रह-नवरदान-ए-वफ़ा मंज़िल पे पहुँचे इस तरह

राह में हर नक़्श-ए-पा मेरा बनाता था चराग़

हम पाँव भी पड़ते हैं तो अल्लाह-रे नख़वत

होता है ये इरशाद कि पड़ते हैं गले आप

कैफ़ियत-ए-तज़ाद अगर हो बयान-ए-शे'र में

'नातिक़' इसी पे रोए क्यूँ चंग-नवाज़ गाए क्यूँ

फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ हो

जब और दूसरा नहीं कोई लिबास पास

मुझ से नाराज़ हैं जो लोग वो ख़ुश हैं उन से

मैं जुदा चीज़ हूँ 'नातिक़' मिरे अशआ'र जुदा

गुज़रती है मज़े से वाइ'ज़ों की ज़िंदगी अब तो

सहारा हो गया है दीन दुनिया-दार लोगों का

शब-ए-हिज्राँ ज़ियादा पाँव फैलाती है क्यूँ

भर गया जितना हमारी उम्र का पैमाना था

चराग़ ले के फिरा ढूँढता हुआ घर घर

शब-ए-फ़िराक़ जो मुझ को रही सहर की तलाश

रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को

किसी दिन देखना हो कर रहेगी सर-निगूँ वो भी

ज़ाहिर था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था

कुछ क्यूँ था जहान में कुछ तो ज़रूर था

सब कुछ मुझे मुश्किल है पूछो मिरी मुश्किल

आसान भी हो काम तो आसाँ नहीं होता

बंदगी कीजिए मगर किस की

है भी दुनिया में कोई बंदा-नवाज़

अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम

जादा हमारे वास्ते काँटा है राह का

के बज़्म-ए-हस्ती में क्या बताएँ क्या पाया

हम को था ही क्या लेना बुत मिले ख़ुदा पाया

तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे

घर जुदा खाने को आए दर-ओ-दीवार जुदा

जी चुराने की नहीं शर्त दिल-ए-ज़ार यहाँ

रंज उठाने ही की ठहरी है तो फिर दिल से उठा

वफ़ा पर नाज़ हम को उन को अपनी बेवफ़ाई पर

कोई मुँह आइने में देखता है कोई पानी में

अब जहाँ में बाक़ी है आह से निशाँ अपना

उड़ गए धुएँ अपने रह गया धुआँ अपना

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