सैफ़ुद्दीन सैफ़ के शेर
'सैफ़' अंदाज़-ए-बयाँ रंग बदल देता है
वर्ना दुनिया में कोई बात नई बात नहीं
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शोर दिन को नहीं सोने देता
शब को सन्नाटा जगा देता है
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ऐसे लम्हे भी गुज़ारे हैं तिरी फ़ुर्क़त में
जब तिरी याद भी इस दिल पे गिराँ गुज़री है
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थकी थकी सी फ़ज़ाएँ बुझे बुझे तारे
बड़ी उदास घड़ी है ज़रा ठहर जाओ
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तुम को बेगाने भी अपनाते हैं मैं जानता हूँ
मेरे अपने भी पराए हैं तुम्हें क्या मालूम
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क्या क़यामत है हिज्र के दिन भी
ज़िंदगी में शुमार होते हैं
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मिरी दास्तान-ए-हसरत वो सुना सुना के रोए
मिरे आज़माने वाले मुझे आज़मा के रोए
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आज की रात वो आए हैं बड़ी देर के ब'अद
आज की रात बड़ी देर के ब'अद आई है
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ज़िंदगी किस तरह कटेगी 'सैफ़'
रात कटती नज़र नहीं आती
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तुम्हारे ब'अद ख़ुदा जाने क्या हुआ दिल को
किसी से रब्त बढ़ाने का हौसला न हुआ
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कितना बेकार तमन्ना का सफ़र होता है
कल की उम्मीद पे हर आज बसर होता है
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हमें ख़बर है वो मेहमान एक रात का है
हमारे पास भी सामान एक रात का है
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दिल-ए-वीराँ को देखते क्या हो
ये वही आरज़ू की बस्ती है
ग़म-गुसारो बहुत उदास हूँ मैं
आज बहला सको तो आ जाओ
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बोले वो कुछ ऐसी बे-रुख़ी से
दिल ही में रहा सवाल अपना
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जिस दिन से भुला दिया है तू ने
आता ही नहीं ख़याल अपना
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जी नहीं आप से क्या मुझ को शिकायत होगी
हाँ मुझे तल्ख़ी-ए-हालात पे रोना आया
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कोई ऐसा अहल-ए-दिल हो कि फ़साना-ए-मोहब्बत
मैं उसे सुना के रोऊँ वो मुझे सुना के रोए
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कितने अंजान हैं क्या सादगी से पूछते हैं
कहिए क्या मेरी किसी बात पे रोना आया
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हुस्न जल्वा दिखा गया अपना
इश्क़ बैठा रहा उदास कहीं
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तुम ने दीवाना बनाया मुझ को
लोग अफ़्साना बनाएँगे तुम्हें
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कभी जिगर पे कभी दिल पे चोट पड़ती है
तिरी नज़र के निशाने बदलते रहते हैं
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पास आए तो और हो गए दूर
ये कितने अजीब फ़ासले हैं
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शायद तुम्हारे साथ भी वापस न आ सकें
वो वलवले जो साथ तुम्हारे चले गए
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चलो मय-कदे में बसेरा ही कर लो
न आना पड़ेगा न जाना पड़ेगा
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दिल-ए-नादाँ तिरी हालत क्या है
तू न अपनों में न बेगानों में
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मेरा होना भी कोई होना है
मेरी हस्ती भी कोई हस्ती है
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दुश्मन गए तो कशमकश-ए-दोस्ती गई
दुश्मन गए कि दोस्त हमारे चले गए
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क्यूँ उजड़ जाती है दिल की महफ़िल
ये दिया कौन बुझा देता है
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ये आलाम-ए-हस्ती ये दौर-ए-ज़माना
तो क्या अब तुम्हें भूल जाना पड़ेगा
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अपनी वुसअत में खो चुका हूँ मैं
राह दिखला सको तो आ जाओ
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रात गुज़रे न दर्द-ए-दिल ठहरे
कुछ तो बढ़ जाए कुछ तो घट जाए
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'सैफ़' पी कर भी तिश्नगी न गई
अब के बरसात और ही कुछ थी
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आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
आप गुज़रे हैं तो इक मौज-ए-रवाँ गुज़री है
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उस मुसाफ़िर की नक़ाहत का ठिकाना क्या है
संग-ए-मंज़िल जिसे दीवार नज़र आने लगे
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कैसे जीते हैं ये किस तरह जिए जाते हैं
अहल-ए-दिल की बसर-औक़ात पे रोना आया
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दिल ने पाया क़रार पहलू में
गर्दिश-ए-काएनात ख़त्म हुई
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फूल इस ख़ाक-दाँ के हम भी हैं
मुद्दई दो जहाँ के हम भी हैं
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क़रीब-ए-नज़'अ भी क्यूँ चैन ले सके कोई
नक़ाब रुख़ से उठा लो तुम्हें किसी से क्या
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