सालिम सलीम के शेर
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
मिरे अंदर से सभी रंग तुम्हारे निकले
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए
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चटख़ के टूट गई है तो बन गई आवाज़
जो मेरे सीने में इक रोज़ ख़ामुशी हुई थी
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टैग : ख़ामोशी
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मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
तुम्हें इतना ज़ियादा कर लिया है
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टैग : लव
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इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
इक आग मेरे कमरे के अंदर लगी रहे
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ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से
तमाशा देख रहा हूँ मैं अपने जलने का
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वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
वो मिल गया है तो जी चाहता है खोने को
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ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
अब मुझे ज़िद है कि बर्बाद किया जाए उसे
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कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
मेरे पास आएगा और आसान कर देगा मुझे
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तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
अभी तक मेरे कमरे में धुआँ फैला हुआ है
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तरस रही थीं ये आँखें किसी की सूरत को
सो हम भी दश्त में आब-ए-रवाँ उठा लाए
आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए
आज ख़ुशबू को परेशान किया जाएगा
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कैसा हंगामा बपा है कि मिरे शहर के लोग
ख़ामुशी ढूँढने ग़ारों की तरफ़ जाते हुए
रास आती नहीं अब मेरे लहू को कोई ख़ाक
ऐसा इस जिस्म का पाबंद-ए-सलासिल हुआ मैं
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टैग : जिस्म
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मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
जो भड़कती है तिरे छिड़के हुए पानी से
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क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं
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हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
वस्ल की रात है क्यूँ मर्सिया-ख़्वानी करें हम
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अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
वो जब्र था कि ख़ुद को ख़ुदा कर चुके हैं हम
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तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
तमाम खोए हुओं को इशारा कर के लाओ
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मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
फिर इस के बाद कोई शय चमकती रहती है
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चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
मैं बुझ के रह गया उस को हवा बनाने में
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कहकशाएँ मिरी मिट्टी की तरफ़ आती हुईं
मिरे ज़र्रात सितारों की तरफ़ जाते हुए
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न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
न जाने क्या मिरे काँधे पे सर सा रहता है
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टूटते बर्तन का शोर और गूँगी बहरी ख़ामुशी
हम ने रख ली है बचा कर एक गहरी ख़ामुशी
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टैग : ख़ामोशी
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बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
ज़रा सा झाँक के देखें कहीं हवा ही न हो
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जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
रूह के अंदर कोई कार-ए-बदन होता हुआ
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थके हुए से बदन को लिटा के बिस्तर पर
हम अपने आप से लड़ते हैं नींद आने तक
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जो एक दम में तमाम रूहों को ख़ाक कर दे
बदन से उड़ता हुआ इक ऐसा शरार देखूँ
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सो गया वक़्त की दहलीज़ पे सर रक्खे हुए
मैं कहाँ तक सफ़र-ए-इश्क़ में तन्हा जाता
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समेटने में लगे हैं हम अपनी साँसों को
ये जानते हैं कि इक दिन बिखेर देगा कोई
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शायद कुछ मजबूरी बढ़ती जाती है
तुझ से मेरी दूरी बढ़ती जाती है
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ये आँखें सूखी पड़ी हैं लहू से नम कर लूँ
जो तुम कहो तो ज़रा सा तुम्हारा ग़म कर लूँ
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'इश्क़ करना बहुत ज़रूरी है
तुम मोहब्बत को 'इश्क़ कहते हो
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देखना ता'बीर में हर सुब्ह को सहरा की प्यास
रात को फिर अपने ख़्वाबों में समुंदर देखना
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सुना है चाँद को उलझा लिया है शाख़ों ने
सो अब चराग़ दरीचों पे रख दिए जाएँ
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कितने बेकार ख़ुदाओं की इबादत की है
आख़िरी बार किसी बुत से शिकायत की है
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मैं ज़ख़्म-ए-दर-बदरी खा के लौट आऊँ जब
मिरे जले हुए सीने पे हात रख देना
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और कब तक ज़िंदगी की नाज़-बरदारी करें
दोस्तो आओ चलो मरने की तय्यारी करें
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ये जिस्म उतरा हुआ है मेरा कि रूह से ख़ुद को ढाँपना है
कोई न आए ज़रा यहाँ पर अभी मैं कपड़े बदल रहा हूँ
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तय कर लिया है मैं ने सराबों भरा सफ़र
ऐ दश्त अब मुझे मिरा इनआ'म चाहिए
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किसी और दर के निशान मेरी जबीं पे हैं
तू बहुत दिनों से मिरा ख़ुदा नहीं हो रहा
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बस एक चीख़ सी उभरेगी ख़ाना-ए-दिल से
फिर इस के बा'द मिरी ख़ामुशी सुनेगा कोई
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मैं आसमान-ओ-ज़मीं के झगड़े में यूँही बे-वज्ह पड़ गया था
कोई बुलाता है पास अपने किसी के हमराह चल रहा हूँ
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ख़ुद अपने आप को वैसे भी ढूँढना होगा
सदाएँ दे के मुझे यूँ भी छुप रहेगा कोई
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इस दिल में चुभा रहता था काँटे की तरह वो
इक रोज़ उसे मैं ने मोहब्बत से निकाला
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मुझी से हुए ये रस्ते तमाम जाते हैं उस के दर तक
मैं आ रहा हूँ उसी के दर पर कि अपने अंदर निकल रहा हूँ
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कितनी आँखें दर-ओ-दीवार से चिपकी हुई हैं
रास्ता भूले हुए शख़्स कभी घर भी तो आ
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जो हुई सुब्ह तो देखे नए क़दमों के निशाँ
आज ही रात को लौटे थे सफ़र से अपने
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