शकील जाज़िब के शेर
फिर तुझे और मुझे और कहीं जाना है
हम-सफ़र साथ तो चल जितनी सड़क बाक़ी है
मुझ को अता हुआ है ये कैसा लिबास-ए-ज़ीस्त
बढ़ते हैं जिस के चाक बराबर रफ़ू के साथ
उस की भी मिरी तरह थी इक अपनी कहानी
उस को भी निभाना पड़ा किरदार मुझे भी
जो गुफ़्तुगू में सब से ज़रूरी था वो सुख़न
उन की समाअतों ने इज़ाफ़ी समझ लिया
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क्या किसी उम्मीद पर फिर से दर-ए-दिल वा करूँ
तुझ से बढ़ कर ख़ुद बता मेरा शनासा कौन था
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क्या करूँ ऐ तिश्नगी तेरा मुदावा बस वो लब
जिन लबों को छू के पानी आग बनता जाए है
ताज़ा वारिद हूँ मियाँ और ये शहर-ए-दिल है
कुछ कमाने को यहाँ कार-ए-ज़ियाँ ढूँडता हूँ
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यारो दुआ करो ये कोई हादसा न हो
पहले यूँ इंतिज़ार में लज़्ज़त कभी न थी
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कार-ए-दुनिया को भी कार-ए-इश्क़ में शामिल समझ
इस लिए ऐ ज़िंदगी तेरी पता रखता हूँ मैं
यहाँ पे कुछ भी नहीं है बाक़ी तू अक्स अपना तलाश मत कर
मिरी निगाहों के आइने अब ग़ुबार-ए-फ़ुर्क़त से अट गए हैं