शरफ़ मुजद्दिदी के शेर
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
बे-पर्दा वो हो जाएँ तो क्या जानिए क्या हो
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तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
काश ऐसा ही सिखा दें कोई अफ़्सूँ मुझ को
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अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
सारी उम्मत के हैं पोतों से नवासे बढ़ कर
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दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
हर जा है दोस्त और नहीं मिलती है जा-ए-दोस्त
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तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
तुम्हें भी दर्द-ए-मोहब्बत सुनाए देते हैं
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हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
अब मुझे समझाने वाला कौन था
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जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
रंग उड़ा लाए हैं ज़ालिम तिरी रानाई का
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पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
सर झुकाए हुए हम जाते हैं
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तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
निकलता ही नहीं दिन रात अपने घर में रहता है
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जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
वर्ना तुझ को पाने वाला कौन था
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दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
खींच लाए शराब-ख़ाने से
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टैग : मय-कदा
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क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
अंधा है तो देखता नहीं है
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कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
आज उन्हें देखिए क्या हो गए क्या से बढ़ कर
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उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
डर है कि न हो जाए लड़ाई तिरे दर पर
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अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
जाम चलते हैं ख़ानक़ाहों में
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इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
मैं ने जो देखा जो समझा कुछ न था
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आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
नुक़्ता-ए-वहम हुआ गुम्बद-ए-गर्दूं मुझ को
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शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
मय-कशों की नज़र में कुछ भी नहीं
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दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
क्या तुम्हीं हो पाक-दामन पारसा मैं भी तो हूँ
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पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
दिल उस की राह में है क्या सरफ़राज़ मेरा
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हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
कोताह रोज़-ए-महशर क़िस्सा दराज़ मेरा
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एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
ये नया कूचा-ए-क़ातिल में तमाशा देखा
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