वज़ीर आग़ा के शेर
वो ख़ुश-कलाम है ऐसा कि उस के पास हमें
तवील रहना भी लगता है मुख़्तसर रहना
खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी
किताब मेरी थी रंग-ए-किताब उस का था
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टैग : किताब
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इतना न पास आ कि तुझे ढूँडते फिरें
इतना न दूर जा के हमा-वक़्त पास हो
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उस की आवाज़ में थे सारे ख़द-ओ-ख़ाल उस के
वो चहकता था तो हँसते थे पर-ओ-बाल उस के
सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र ये है
वहाँ को भूल गए और यहाँ को पहचाना
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अजब तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी हम ने
जहाँ में रह के न कार-ए-जहाँ को पहचाना
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टैग : ज़िंदगी
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या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर
या प्यास के सहरा में मुझे जीना सिखा दे
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टैग : अब्र
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मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
हर-चंद तेरी याद मिरे आस पास थी
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टैग : याद
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चलो अपनी भी जानिब अब चलें हम
ये रस्ता देर से सूना पड़ा है
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ख़ुद अपने ग़म ही से की पहले दोस्ती हम ने
और उस के बा'द ग़म-ए-दोस्ताँ को पहचाना
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रेत पर छोड़ गया नक़्श हज़ारों अपने
किसी पागल की तरह नक़्श मिटाने वाला
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आहिस्ता बात कर कि हवा तेज़ है बहुत
ऐसा न हो कि सारा नगर बोलने लगे
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ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम
सितारे मुझ को मिले माहताब उस का था
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या रब तिरी रहमत का तलबगार है ये भी
थोड़ी सी मिरे शहर को भी आब-ओ-हवा दे
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उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की
उम्र से भी वो बा-वफ़ा न रहा
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लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो
मैला बदन पहन के न इतना उदास हो
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धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
अब कहाँ आएगा वो लौट के आने वाला
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कैसे कहूँ कि मैं ने कहाँ का सफ़र किया
आकाश बे-चराग़ ज़मीं बे-लिबास थी
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ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं
ऐसे गए कि फिर न कभी लौटना हुआ
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समेटता रहा ख़ुद को मैं उम्र-भर लेकिन
बिखेरता रहा शबनम का सिलसिला मुझ को
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थी नींद मेरी मगर उस में ख़्वाब उस का था
बदन मिरा था बदन में अज़ाब उस का था
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कहने को चंद गाम था ये अरसा-ए-हयात
लेकिन तमाम उम्र ही चलना पड़ा तुझे
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दिए बुझे तो हवा को किया गया बदनाम
क़ुसूर हम ने किया एहतिसाब उस का था
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अब तो आराम करें सोचती आँखें मेरी
रात का आख़िरी तारा भी है जाने वाला
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जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया
मैं रहगुज़र था मुझे रौंद कर ज़माना गया
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करना पड़ेगा अपने ही साए में अब क़याम
चारों तरफ़ है धूप का सहरा बिछा हुआ
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ये कैसी आँख थी जो रो पड़ी है
ये कैसा ख़्वाब था जो बुझ गया है
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पहना दे चाँदनी को क़बा अपने जिस्म की
उस का बदन भी तेरी तरह बे-लिबास हो
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क़िस्मत ही में रौशनी नहीं थी
बादल तो कभी का छट रहा था
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वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में
फिर उस के बा'द गिनती उम्र की दिन रात करता है
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बंद उस ने कर लिए थे घर के दरवाज़े अगर
फिर खुला क्यूँ रह गया था एक दर मेरे लिए
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किस की ख़ुशबू ने भर दिया था उसे
उस के अंदर कोई ख़ला न रहा
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सिखा दिया है ज़माने ने बे-बसर रहना
ख़बर की आँच में जल कर भी बे-ख़बर रहना
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तीरगी बे-आबरू थी और तजल्ली बे-वक़ार
इक थका-हारा सा जुगनू किस क़दर दिल-गीर था
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