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ज़िया फ़ारूक़ी

1947 - 2024 | भोपाल, भारत

प्रसिद्ध उर्दू कवि और आलोचक, जो अपनी प्रभावशाली ग़ज़लों और साहित्यिक योगदान के लिए जाने जाते हैं

प्रसिद्ध उर्दू कवि और आलोचक, जो अपनी प्रभावशाली ग़ज़लों और साहित्यिक योगदान के लिए जाने जाते हैं

ज़िया फ़ारूक़ी के शेर

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पहले था बहुत फ़ासला बाज़ार से घर का

अब एक ही कमरे में है बाज़ार भी घर भी

बदन की क़ैद से छूटा तो लोग पहचाने

तमाम 'उम्र किसी को मिरा पता मिला

ये सफ़र ये डूबते सूरज का मंज़र और मैं

जाने कब हो पाएँगे बाहम मिरा घर और मैं

मत पूछिए क्या जीतने निकला था मैं घर से

ये देखिए क्या हार के लौटा हूँ सफ़र से

ज़िंदगी के इस सफ़र ने और क्या मुझ को दिया

एक टूटा आइना दो चार पत्थर और मैं

आँखें हैं कि अब तक उसी चौखट पे धरी हैं

देता हूँ ज़माने को मगर अपना पता और

शु’ऊर-ए-तिश्नगी इक रोज़ में पुख़्ता नहीं होता

मिरे होंटों ने सदियों कर्बला की ख़ाक चूमी है

ग़म-ए-हयात को यूँ ख़ुश-गवार कर लिया है

कि हम ने हाल को माज़ी शुमार कर लिया है

कौन जाने आज भी करते हैं किस का इंतिज़ार

ये शिकस्ता बाम-ओ-दर रौज़न कबूतर और मैं

क्या ख़बर थी कि तमाशे को हुनर करते हुए

'उम्र कट जाएगी बाज़ार को घर करते हुए

अब कहाँ बस्ती में वो ख़ुबान-ए-वहशत-आश्ना

माँग खा लेता हूँ इक साज़-ए-शिकस्ता के तुफ़ैल

लहू से जिन के है रौशन ये ख़ानक़ाह-ए-जुनूँ

हमारे सर पे है साया उन्हीं बुज़ुर्गों का

कल रात भी इक चेहरा हमराह मिरे जागा

कल रात भी रह-रह कर दीवार लगीं आँखें

कल रात भी था चौदहवीं का चाँद फ़लक पर

कल रात भी इक क़ाफ़िला निकला था खंडर से

कौन है जो इतने सन्नाटे में है महव-ए-सफ़र

दश्त-ए-शब में ये ग़ुबार-ए-माह-ओ-अंजुम किस लिए

मेरी झोली में मुरव्वत के सिवा कुछ भी था

सो उसे भी यार लोगों ने मिरे लूटा बहुत

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