ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर के शेर
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता
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गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है
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ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का
कोई हँस दे तो मोहब्बत का गुमाँ होता है
तुम यूँ ही नाराज़ हुए हो वर्ना मय-ख़ाने का पता
हम ने हर उस शख़्स से पूछा जिस के नैन नशीले थे
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बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो
दिन अंधेरों की तलब में गुज़रा
रात को शम्अ जला दी हम ने
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इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर
गुज़रता नहीं इक दिसम्बर अकेले
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किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
तिरे तकिए के नीचे भी हमारे ख़्वाब रक्खे हैं
हर बच्चा आँखें खोलते ही करता है सवाल मोहब्बत का
दुनिया के किसी गोशे से उसे मिल जाए जवाब तो अच्छा हो
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टैग : वैलेंटाइन डे
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आया है इक राह-नुमा के इस्तिक़बाल को इक बच्चा
पेट है ख़ाली आँख में हसरत हाथों में गुल-दस्ता है
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टैग : मुफ़्लिसी
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याद अश्कों में बहा दी हम ने
आ कि हर बात भुला दी हम ने
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
वो शख़्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता
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सब से अच्छा कह के उस ने मुझ को रुख़्सत कर दिया
जब यहां आया तो फिर सब से बुरा भी मैं ही था
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तिरी आवाज़ को इस शहर की लहरें तरसती हैं
ग़लत नंबर मिलाता हूँ तो पहरों बात होती है
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टैग : आवाज़
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कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
और डूबने वालों का जज़्बा भी नहीं बदला
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पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
और फिर पूरी काएनात बना
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वफ़ा के शहर में अब लोग झूट बोलते हैं
तू आ रहा है मगर सच को मानता है तो आ
अब उसी आग में जलते हैं जिसे
अपने दामन से हवा दी हम ने
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हम ने तुम्हारे ग़म को हक़ीक़त बना दिया
तुम ने हमारे ग़म के फ़साने बनाए हैं
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टैग : ग़म
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प्यार गया तो कैसे मिलते रंग से रंग और ख़्वाब से ख़्वाब
एक मुकम्मल घर के अंदर हर तस्वीर अधूरी थी
हम तो वहाँ पहुँच नहीं सकते तमाम उम्र
आँखों ने इतनी दूर ठिकाने बनाए हैं
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ज़मानों को उड़ानें बर्क़ को रफ़्तार देता था
मगर मुझ से कहा ठहरे हुए शाम-ओ-सहर ले जा
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ख़ुशबू गिरफ़्त-ए-अक्स में लाया और उस के बाद
मैं देखता रहा तिरी तस्वीर थक गई
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टैग : तस्वीर
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कोई मुँह फेर लेता है तो 'क़ासिर' अब शिकायत क्या
तुझे किस ने कहा था आइने को तोड़ कर ले जा
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मोहब्बत की गवाही अपने होने की ख़बर ले जा
जिधर वो शख़्स रहता है मुझे ऐ दिल! उधर ले जा
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गुलाबों के नशेमन से मिरे महबूब के सर तक
सफ़र लम्बा था ख़ुशबू का मगर आ ही गई घर तक
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ये हादसा है कि नाराज़ हो गया सूरज
मैं रो रहा था लिपट कर ख़ुद अपने साए से
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हर साल की आख़िरी शामों में दो चार वरक़ उड़ जाते हैं
अब और न बिखरे रिश्तों की बोसीदा किताब तो अच्छा हो
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सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ
कुछ ख़्वाब जो ढूँडते फिरते हैं जीने का सहारा आँखों में
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हज़ारों इस में रहने के लिए आए
मकाँ मैं ने तसव्वुर में बनाया था
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वो लोग मुतमइन हैं कि पत्थर हैं उन के पास
हम ख़ुश कि हम ने आईना-ख़ाने बनाए हैं
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हर साल बहार से पहले मैं पानी पर फूल बनाता हूँ
फिर चारों मौसम लिख जाते हैं नाम तुम्हारा आँखों में
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बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
मगर वो शहर के रस्ते से आया था
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हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है
अब तक याद का पत्ता पत्ता डाली से पैवस्ता है
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नाम लिख लिख के तिरा फूल बनाने वाला
आज फिर शबनमीं आँखों से वरक़ धोता है
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प्यास की सल्तनत नहीं मिटती
लाख दजले बना फ़ुरात बना
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टैग : तिश्नगी
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कहते हैं इन शाख़ों पर फल फूल भी आते थे
अब तो पत्ते झड़ते हैं या पत्थर गिरते हैं
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उम्मीद की सूखती शाख़ों से सारे पत्ते झड़ जाएँगे
इस ख़ौफ़ से अपनी तस्वीरें हम साल-ब-साल बनाते हैं
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जिन की दर्द-भरी बातों से एक ज़माना राम हुआ
'क़ासिर' ऐसे फ़न-कारों की क़िस्मत में बन-बास रहा
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बेकार गया बन में सोना मिरा सदियों का
इस शहर में तो अब तक सिक्का भी नहीं बदला
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उसी की शक्ल मुझे चाँद में नज़र आए
वो माह-रुख़ जो लब-ए-बाम भी नहीं आता
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जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक
मेरे एहसास में तन्हाइयाँ क्यूँ बोता है
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शौक़ बरहना-पा चलता था और रस्ते पथरीले थे
घिसते घिसते घिस गए आख़िर कंकर जो नोकीले थे
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इस तरह क़हत-ए-हवा की ज़द में है मेरा वजूद
आँधियाँ पहचान लेती हैं ब-आसानी मुझे
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सायों की ज़द में आ गईं सारी ग़ुलाम-गर्दिशें
अब तो कनीज़ के लिए राह-ए-फ़रार भी नहीं
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यूँ ही आसाँ नहीं है नूर में तहलील हो जाना
वो सातों रंग 'क़ासिर' एक पैराहन में रखता है
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मैं बदन को दर्द के मल्बूस पहनाता रहा
रूह तक फैली हुई मिलती है उर्यानी मुझे
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मैं गिन रहा था शुआ'ओं के बे कफ़न लाशे
उतर रही थी शब-ए-ग़म शफ़क़ के ज़ीने से
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