शजर की याद रुलाती ही थी मगर अब तो
जो आशियाँ के बराबर था वो क़फ़स भी गया
गाह हो जाता हूँ मैं अपनी अना का क़ैदी
मैं न आऊँ तो फिर आ कर मुझे छुड़वाएगा
क़ैद-ए-आवारगी-ए-जाँ ही बहुत है मुझ को
एक दीवार मिरी रूह के अंदर न बना
ज़िंदगानी असीर करने को
गेसुओं का ये जाल अच्छा है
ख़त-ओ-काकुल-ओ-ज़ुल्फ़-ओ-अंदाज़-ओ-नाज़
हुईं दाम-ए-रह सद-गिरफ़्तारियाँ