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मीर तक़ी मीर

1723 - 1810 | दिल्ली, भारत

उर्दू के पहले बड़े शायर जिन्हें 'ख़ुदा-ए-सुख़न' (शायरी का ख़ुदा) कहा जाता है

उर्दू के पहले बड़े शायर जिन्हें 'ख़ुदा-ए-सुख़न' (शायरी का ख़ुदा) कहा जाता है

मीर तक़ी मीर के शेर

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गुफ़्तुगू रेख़्ते में हम से कर

ये हमारी ज़बान है प्यारे

पाँव के नीचे की मिट्टी भी होगी हम सी

क्या कहें उम्र को इस तरह बसर हम ने किया

हम तौर-ए-इश्क़ से तो वाक़िफ़ नहीं हैं लेकिन

सीने में जैसे कोई दिल को मला करे है

अब आया ध्यान आराम-ए-जाँ इस ना-मुरादी में

कफ़न देना तुम्हें भूले थे हम अस्बाब-ए-शादी में

रहा था देख ऊधर 'मीर' चलते

अजब इक ना-उमीदी थी नज़र में

मीर उस क़ाज़ी के लौंडे के लिए आख़िर मुआ

सब को क़ज़िया उस के जीने का था बारे चुक गया

सदा हम तो खोए गए से रहे

कभू आप में तुम ने पाया हमें

कैसा चमन कि हम से असीरों को मनअ' है

चाक-ए-क़फ़स से बाग़ की दीवार देखना

क्या जानूँ चश्म-ए-तर से उधर दिल को क्या हुआ

किस को ख़बर है 'मीर' समुंदर के पार की

शम्अ जो आगे शाम को आई रश्क से जल कर ख़ाक हुई

सुब्ह गुल-ए-तर सामने हो कर जोश-ए-शर्म से आब हुआ

व्याख्या

शम्अ जो आगे शाम को आई रश्क से जल कर ख़ाक हुई

सुबह गुल-ए-तर सामने हो कर जोश-ए-शर्म से आब हुआ

मीर फ़रमाते हैं कि मेरे महबूब को शम्अ ने शाम में देख लिया था और बस रश्क से जल जल कर ख़ाक हो गई, ख़ैर ये तो हुई शाम की बात, फिर सुबह हुई तो एक ताज़ा फूल खिला हुआ था , जो अपनी ताज़गी पर बहुत इतरा रहा था, ज़रा नज़र पड़ी मेरे प्यारे महबूब पर कि सारी बड़ाई निकल गई, अब देखो शर्म से पानी पानी हुआ जा रहा है।

ये शे’र सनअत-ए-ता'लील की ज़बरदस्त मिसाल है। सनअत-ए-ता'लील या’नी किसी वाक़िया का कुछ और सबब हो लेकिन शायर उसकी कोई और शायराना वजह बयाँ करे। मसलन शम्अ को शाम के वक़्त लोग जलाते हैं और धीरे धीरे जलते जलते वो ख़ाक हो जाती है, ख़त्म हो जाती है, लेकिन ‘मीर’ फ़रमा रहे हैं:

शम्अ जो आगे शाम को आई रश्क से जल कर ख़ाक हुई

कहते हैं, नहीं भई वो मेरे महबूब से जलती है, उसे ये बर्दाश्त नहीं होता कि कोई चेहरा शम्अ के चेहरे से ज़ियादा ताबिश, उस से ज़्यादा नूर, उस से ज़ियादा, चमक-दमक रख सकता है, इस लिए जल जल के ख़ाक होती है।

फिर फ़रमाते हैं:

सुब्ह गुल-ए-तर सामने हो कर जोश-ए-शर्म से आब हुआ

सुब्ह के वक़्त ताज़ा फूल एक तो वैसे ही ताज़गी की वजह से थोड़ी तरी लिए होता है और फिर भीगा हुआ भी होता है, लेकिन ‘मीर’ साहब के लिए उसके भीगे होने का सबब ये नहीं है, बल्कि वजह ये है कि फूल अपनी ताज़गी, अपने हुस्न, अपने रंग, अपनी ख़ुशबू और अपनी नज़ाकत, पर फूले समाता था और अब बेचारे ने मेरे महबूब को देख लिया है, और उसे एहसास हुआ कि मेरे महबूब के रुख़ जैसी ताज़गी, मेरे महबूब के चेहरे जैसी ख़ूबसूरती, मेरे महबूब के गालों जैसी रंगत, मेरे महबूब के जिस्म जैसी ख़ुशबू और मेरे महबूब के लबों जैसी नज़ाकत उसमें है, थी, कभी हो सकती है , तो ख़ुद पे फ़ख़्र करने वाले को जब अपनी कमतरी का एहसास होगा तो वो श्रम से पानी पानी ही तो होगा, बस यही वजह है गुल की तरी की।

ग़ालिब अपने ख़ास ग़ालिबाना रंग में फ़रमाते हैं:

होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे होते

घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे

सहरा तो ख़ाक में ही अटा हुआ होता है ना। और अगर आप समुंद्र के किनारे पर हों तो आपको दिखेगा कि लहरें के किनारे को छू रही हैं। ये निज़ाम-ए-क़ुदरत है, लेकिन ग़ालिब कह रहे हैं कि मैं सहरा में हूँ तो मेरी अज़मत के सबब सहरा ख़ाक में अट जाता है, मिट्टी हो जाता है, अपने आपको हक़ीर समझता है। और जब मैं समुंद्र के किनारे होता हूँ तो मेरे एहतिराम में समुंद्र के अपना माथा ख़ाक पर रगड़ता है। या’नी मेरे आगे सर झुकाता है।

इसे आप मुबालग़ा कह लें, एग्रेशन कह लें, झूट कह लें, लेकिन यही शायर और शायरी का सच है। आशिक़ जोश-ए-इश्क़ में महबूब के अलावा कुछ नहीं देख पाता। यही वजह है कि हिज्र में तमाम ख़ूबसूरत मंज़र हुस्न खो देते हैं और महबूब साथ हो तो सहरा की गर्म रेत भी ख़ुश-गवार मालूम होती है। या’नी आशिक़ के लिए काएनात की हर शय में हुस्न-ओ-ख़ूबी की वजह महबूब का होना है और उस के होने से हर चीज़ में कमी जाती है। यही आशिक़ का सच है।

इन्सान कुछ ख़ास लमहात में ख़ुद को इतना अहम समझ लेता है कि उसे लगता है कि निज़ाम-ए-क़ुदरत की हर हरकत उसके सदक़े में है या उसके लिए है। कभी ख़ुद को ऐसा मज़लूम-ए-ज़माना मान लेता है कि उसे लगता है कि हर बला उसी के लिए है।

कभी ये तक लगता है कि बिजली का कौंदना भी इस वजह से है। क्योंकि बिजली उसे डराना चाहती है, इस के साथ छेड़ करना चाहती है।

मीर के ही इक शे’र पे बात ख़त्म करते हैं।

जब कौंदती है बिजली तब जानिब-ए-गुलिस्ताँ

रखती है छेड़ मेरे ख़ाशाक-ए-आशियाँ से

अजमल सिद्दीक़ी

दे के दिल हम जो हो गए मजबूर

इस में क्या इख़्तियार है अपना

कहा मैं ने गुल का है कितना सबात

कली ने ये सुन कर तबस्सुम किया

सैर-ए-गुलज़ार मुबारक हो सबा को हम तो

एक परवाज़ की थी कि गिरफ़्तार हुए

इस बाग़ के हर गुल से चिपक जाती हैं आँखें

मुश्किल बनी है आन के साहिब-नज़रों को

इश्क़ करते हैं उस परी-रू से

'मीर' साहब भी क्या दिवाने हैं

किसू से दिल नहीं मिलता है या रब

हुआ था किस घड़ी उन से जुदा मैं

हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन

मरज़-ए-इश्क़ का इलाज नहीं

लेते ही नाम उस का सोते से चौंक उठ्ठे

है ख़ैर 'मीर'-साहिब कुछ तुम ने ख़्वाब देखा

गर उस के ओर कोई गर्मी से देखता है

इक आग लग उठे है अपने तो तन बदन में

बाहम हुआ करें हैं दिन रात नीचे ऊपर

ये नर्म-शाने लौंडे हैं मख़मल-ए-दो-ख़्वाबा

कौन कहता है ग़ैरों पे तुम इमदाद करो

हम फ़रामोशियों को भी कभू याद करो

जैसे बिजली के चमकने से किसू की सुध जाए

बे-ख़ुदी आई अचानक तिरे जाने से

अमीर-ज़ादों से दिल्ली के मिल ता-मक़्दूर

कि हम फ़क़ीर हुए हैं इन्हीं की दौलत से

व्याख्या

अमीर अर्थात सरदार, हाकिम, धनवान। ग़रीब अर्थात निर्धन,परदेसी। दौलत यानी धन, माल, इक़बाल, नसीब, साम्राज्य, हुकूमत, जीत, ख़ुशी, औलाद। मीर का यह शे’र संलग्नकों के कारण दिलचस्प भी है और अजीब भी। इस शे’र में मीर ने संदर्भों से अच्छा विषय पैदा किया है। इसके विधानों में अमीर ज़ादों, ग़रीब और दौलत बहुत अर्थपूर्ण हैं और फिर उनकी उपयुक्तता दिल्ली से भी ख़ूब है। मीर ख़ुद से कहते हैं कि दिल्ली के अमीर ज़ादों की संगति से बचो क्योंकि हम उन ही के दौलत से ग़रीब हुए हैं। अगर दौलत को मात्र धन और माल के मायने में लिया जाए तो शे’र के यह मायने होते हैं कि मीर दिल्ली के अमीर ज़ादों से दूर रहो क्योंकि हम इन ही के धन-दौलत से ग़रीब हुए हैं। मगर मीर जितने सहल-पसंद थे उतने ही उनके अशआर में पेचीदगी और तहदारी भी है। दरअसल मीर का कहना ये है कि चूँकि दिल्ली के अमीर ज़ादों के नसीब और उनके इक़बाल की वजह से ख़ुदा उन पर मेहरबान है और ख़ुदा उनको दौलत से माला-माल करना चाहता है इसलिए हमारे हिस्से की दौलत भी उनको अता की जिसकी वजह से हम निर्धन हो गए। यदि मार्क्सवाद के दृष्टिकोण से देखा जाए तो मीर ये कहते हैं कि चूँकि दिल्ली के अमीर भौतिकवादी हैं और धन संचय करने की कोई युक्ति नहीं छोड़ते इसलिए उन्होंने हमारा धन हमसे लूट कर हमें ग़रीब बना दिया है।

शफ़क़ सुपुरी

हज़ार मर्तबा बेहतर है बादशाही से

अगर नसीब तिरे कूचे की गदाई हो

मरता था मैं तो बाज़ रक्खा मरने से मुझे

ये कह के कोई ऐसा करे है अरे अरे

क्या जानिए कि इश्क़ में ख़ूँ हो गया कि दाग़

छाती में अब तो दिल की जगह एक दर्द है

जौर क्या क्या जफ़ाएँ क्या क्या हैं

आशिक़ी में बलाएँ क्या क्या हैं

हाथ रक्खे रहता हूँ दिल पर बरसों गुज़रे हिज्राँ में

एक दिन उन ने गले से मिल कर हाथ में मेरा दिल लिया

इश्क़ में जी को सब्र ताब कहाँ

उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ

उम्र गुज़री दवाएँ करते 'मीर'

दर्द-ए-दिल का हुआ चारा हनूज़

कोई तुम सा भी काश तुम को मिले

मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है

बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को

देर से इंतिज़ार है अपना

सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ

मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ

कितनी बातें बना के लाऊँ लेक

याद रहतीं तिरे हुज़ूर नहीं

होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर'

क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को

कहना था किसू से कुछ तकता था किसू का मुँह

कल 'मीर' खड़ा था याँ सच है कि दिवाना था

तुझी पर कुछ बुत नहीं मुनहसिर

जिसे हम ने पूजा ख़ुदा कर दिया

जी अगर ज़ुल्फ़ों के सौदे में तिरे दूँ तो बोल

पहली क़ीमत के तईं मुश्क-बहा कहते हैं

दावा किया था गुल ने तिरे रुख़ से बाग़ में

सैली लगी सबा की तो मुँह लाल हो गया

कैफ़िय्यतें अत्तार के लौंडे में बहुत थीं

इस नुस्ख़े की कोई रही हैफ़ दवा याद

मर्ग इक माँदगी का वक़्फ़ा है

यानी आगे चलेंगे दम ले कर

शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में

ऐब भी करने को हुनर चाहिए

काश उस के रू-ब-रू करें मुझ को हश्र में

कितने मिरे सवाल हैं जिन का नहीं जवाब

धौला चुके थे मिल कर कल लौंडे मय-कदे के

पर सरगिराँ हो वाइ'ज़ जाता रहा सटक कर

रोते फिरते हैं सारी सारी रात

अब यही रोज़गार है अपना

मेहर-ओ-मह गुल फूल सब थे पर हमें

चेहरई चेहरा हमें भाता रहा

जाए है जी नजात के ग़म में

ऐसी जन्नत गई जहन्नम में

शिकवा-ए-आबला अभी से 'मीर'

है पियारे हनूज़ दिल्ली दूर

आए हो घर से उठ कर मेरे मकाँ के ऊपर

की तुम ने मेहरबानी बे-ख़ानुमाँ के ऊपर

इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद

ऐसे फिर ख़ानमाँ-ख़राब कहाँ

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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