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मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर
ब-ख़ुदा तुम ही बता दो नहीं लगता इल्हाम
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विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
हज़ार बार तू जा सद-हज़ार बार आ जा
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क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही
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ऐ नवा-साज़-ए-तमाशा सर-ब-कफ़ जलता हूँ मैं
इक तरफ़ जलता है दिल और इक तरफ़ जलता हूँ मैं
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कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए
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मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब'
शेर ने की ये तमन्ना के बने फ़न मेरा
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उम्र भर देखा किए मरने की राह
मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या
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काम उस से आ पड़ा है कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम सितम-गर कहे बग़ैर
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यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था
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पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए
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फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई
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सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे
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टैग : सच
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तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार
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बोसा कैसा यही ग़नीमत है
कि न समझे वो लज़्ज़त-ए-दुश्नाम
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टैग : किस
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है तमाशा-गाह-ए-सोज़-ए-ताज़ा हर यक उज़्व-ए-तन
जूँ चराग़ान-ए-दिवाली सफ़-ब-सफ़ जलता हूँ मैं
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आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
मुझ से मिरे गुनह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
यानी बग़ैर-ए-यक-दिल-ए-बे-मुद्दआ न माँग
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मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
दशना इक तेज़ सा होता मिरे ग़म-ख़्वार के पास
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मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ
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जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
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टैग : रेख़्ता
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है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर
याँ क्या धरा है क़तरा ओ मौज-ओ-हबाब में
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है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में
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टैग : ख़्वाब
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रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में
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हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में
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देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं
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अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं
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आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं
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है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं
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की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं
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मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिए होते
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मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था
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न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मिरे अशआर में मअ'नी न सही
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न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
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एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही
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अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव
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धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
रखता है ज़िद से खींच के बाहर लगन के पाँव
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भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये
हो कर असीर दाबते हैं राहज़न के पाँव
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बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या
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टैग : बेनियाज़ी
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दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या
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है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या
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गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अंदाज़ छुट जावेंगे क्या
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आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या
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हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझाएँगे क्या
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पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या
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रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या
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उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से
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सँभलने दे मुझे ऐ ना-उमीदी क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से
व्याख्या
ग़ालिब के अशआर के मायने की तहों तक पहुंचना ऐसा ही है जैसे दरिया से मोती निकालना। बल्कि किसी भी शे’र की व्याख्या करना ऐसा ही काम है जैसे किसी फूल की पंखुड़ियों को बिखेर दिया जाये। मगर फिर भी समझने और समझाने के लिए ज़रूरी है कि अशआर को उनके मतलब के साथ खोल कर बयान किया जाये, जिससे कि सुनने वाले को उसके मतलब तक पहुंचना और आसान हो जाये।
ग़ालिब के इस शे’र की बात की जाये तो पहले कुछ अलफ़ाज़ के अर्थ और आशय पर बहस बहुत ज़रूरी है। पहला लफ़्ज़ जो इस शे’र में इस्तेमाल हुआ है वो 'ना-उमीदी’ है जो उम्मीद का विलोम है। जिसका अर्थ निराशा, मायूसी है और दूसरा लफ़्ज़ 'क़ियामत’ है जिसका इस शे’र के अनुसार मुहावराती मतलब अशान्ति, मुसीबत, आफ़त है। इसके अलावा 'दामान-ए-ख़्याल-ए-यार’ का मतलब देखें तो समझ आएगा कि महबूब के ख़्याल का दामन या अपने प्रिय की कल्पनाओं का सिरा है।
सबसे पहले तो ये बात ज़ेहन में रखनी चाहिए कि किसी शे’र में दो पहलू होते हैं। पहला उस के शब्दों का क्रम और उसकी क्रा़फ्ट है और दूसरा उसके मायने की गहराई जो शे’र का अंदरूनी हुस्न है। या यूं कहिए कि जो शे’र की असल बुनियाद है। मायने वो हैं कि जिनकी तहें बहुत गहरी हैं बहुत अंदर तक पहुंची हुई हैं जिनको पूरी तरह समझना तो बहुत मुश्किल है, मगर ये कि अगर समझने की कोशिश की जाये तो परत दर परत बहुत सी संभावनाएं सामने आती चली जाती हैं। इस शे’र में शायर अपने दिल पर ना-उम्मीदी और नाकामी के सायों के पड़ने की वजह से इतना परेशान है कि उसके हाथ से अपने महबूब की याद के सिरे भी निकले जाते हैं। ग़ालिब किसी बात को सीधे और आसान लफ़्ज़ों में कहने के आदी नहीं हैं। सीधी साधी बात को भी सांसारिक बना देते हैं और इतने व्यापक अर्थ खुलते हुए नज़र आते हैं कि जिसको देखकर हैरान हो जाना स्वाभाविक है।
यहाँ ग़ालिब ख़ुद को उम्मीद और उससे इतना ख़ाली पाते हैं कि ना-उम्मीद हो जाते हैं और इसी ना-उम्मीदी को आदर्श रूप में पेश करते हुए कहते हैं कि ऐ ना-उम्मीदी ज़रा मुझे संभलने तो दे, मुझे दम लेने तो दे, मुझको सोचने समझने तो दे, मुझ पर एक के बाद एक निराशा की बौछार न होने दे, क्योंकि ये मायूसी और ना-उम्मीदी एक तरह से मुझे हर तरह की दुनियावी मुसीबतों में घेरे रखती है, वहीं दूसरी तरफ़ मैं अपने महबूब की याद और उसकी कल्पना से भी दूर हो जाता हूँ। ग़ालिब ने दामान-ए- ख़्याल-ए-यार” का इस्तेमाल कर के इस आम सी भावना को भी बहुत ख़ास बना दिया है और आम से आशय को बहुत गहराई अता कर दी है।
ग़ालिब के कहने का मतलब ये है कि एक के बाद एक दुख-दर्द परेशानी और मुसीबत, आफ़त और बेचैनी ऐसी है कि जो ज़िंदगी को घेरे हुए है और उन्हीं परेशानियों और मुसीबतों ने उसकी ज़िंदगी से उसको छीन कर मायूसी में बदल दिया है। शे’र की परतों को खोलें तो देखेंगे कि इस शे’र में जिस हुस्न और ख़ूबसूरती से इस दर्द को बयान किया गया है उसने उसके बयान को नई दिशा और नया रंग प्रदान कर दिया है। ज़ाहिर है कि दुनियावी मामलों और मुद्दों की ज़्यादती हमेशा ही दिल के मामलों पर भारी हो जाती है और यही ग़ालिब के साथ भी हुआ जिसको वो इस शे’र में बयान करते हैं। एक और जगह ग़ालिब इसी तरह बयान करते हैं कि;
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
यानी सारी उम्मीदें ख़त्म हो चुकी हैं आगे अंधेरा ही अंधेरा है, काला ही काला है, ग़म ही ग़म है, परेशानी ही परेशानी है।
सुहैल आज़ाद
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कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से
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क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से
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