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मुज़्तर ख़ैराबादी

1865 - 1927 | ग्वालियर, भारत

प्रसिद्ध फ़िल्म गीतकार जावेद अख़्तर के दादा

प्रसिद्ध फ़िल्म गीतकार जावेद अख़्तर के दादा

मुज़्तर ख़ैराबादी के शेर

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ख़ुदा दुनिया पे अब क़ब्ज़ा बुतों का चाहिए

एक घर तेरे लिए इन सब ने ख़ाली कर दिया

यहाँ से जब गई थी तब असर पर ख़ार खाए थी

वहाँ से फूल बरसाती हुई पलटी दुआ मेरी

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या

मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ

पर्दे वाले भी कहीं आते हैं घर से बाहर

अब जो बैठे हो तुम दिल में तो बैठे रहना

ख़ाल-ओ-आरिज़ का तसव्वुर है हमारे दिल में

एक हिन्दू भी है काबे में मुसलमान के साथ

हाल-ए-दिल अग़्यार से कहना पड़ा

गुल का क़िस्सा ख़ार से कहना पड़ा

मैं मसीहा उसे समझता हूँ

जो मिरे दर्द की दवा करे

बुतो रंज के साथी हो आराम के तुम

काम ही जब नहीं आते हो तो किस काम के तुम

दिल को मैं अपने पास क्यूँ रक्खूँ

तू ही ले जा अगर ये तेरा है

लड़ाई है तो अच्छा रात-भर यूँ ही बसर कर लो

हम अपना मुँह इधर कर लें तुम अपना मुँह उधर कर लो

साक़ी मिरा खिंचा था तो मैं ने मना लिया

ये किस तरह मने जो धरी है खिंची हुई

कोई ले ले तो दिल देने को मैं तय्यार बैठा हूँ

कोई माँगे तो अपनी जान तक क़ुर्बान करता हूँ

किसी की आँख का नूर हूँ किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ

जो पूछा दिल हमारा क्यूँ लिया तो नाज़ से बोले

कि थोड़ी बे-क़रारी इस दिल-ए-'मुज़्तर' से लेना है

काबे में हम ने जा के कुछ और हाल देखा

जब बुत-कदे में पहुँचे सूरत ही दूसरी थी

ईमान साथ जाएगा क्यूँकर ख़ुदा के घर

काबे का रास्ता तो कलीसा से मिल गया

पड़ा हूँ इस तरह उस दर पे 'मुज़्तर'

कोई देखे तो जाने मार डाला

उस का भी एक वक़्त है आने दो मौत को

'मुज़्तर' ख़ुदा की याद अभी क्यूँ करे कोई

बोसे अपने आरिज़-ए-गुलफ़ाम के

ला मुझे दे दे तिरे किस काम के

उन का इक पतला सा ख़ंजर उन का इक नाज़ुक सा हाथ

वो तो ये कहिए मिरी गर्दन ख़ुशी में कट गई

नमक-पाश-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर अब तो जा

मिरा दिल बहुत बे-मज़ा हो रहा है

उसे क्यूँ हम ने दिया दिल जो है बे-मेहरी में कामिल जिसे आदत है जफ़ा की

जिसे चिढ़ मेहर-ओ-वफ़ा की जिसे आता नहीं आना ग़म-ओ-हसरत का मिटाना जो सितम में है यगाना

जिसे कहता है ज़माना बुत-ए-बे-महर-ओ-दग़ा-बाज़ जफ़ा-पेशा फ़ुसूँ-साज़ सितम-ख़ाना-बर-अन्दाज़

ग़ज़ब जिस का हर इक नाज़ नज़र फ़ित्ना मिज़ा तीर बला ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर ग़म-ओ-रंज का बानी क़लक़-ओ-दर्द

का मूजिब सितम-ओ-जौर का उस्ताद जफ़ा-कारी में माहिर जो सितम-केश-ओ-सितमगर जो सितम-पेशा है

दिलबर जिसे आती नहीं उल्फ़त जो समझता नहीं चाहत जो तसल्ली को समझे जो तशफ़्फ़ी को

जाने जो करे क़ौल पूरा करे हर काम अधूरा यही दिन-रात तसव्वुर है कि नाहक़

उसे चाहा जो आए बुलाए कभी पास बिठाए रुख़-ए-साफ़ दिखाए कोई

बात सुनाए लगी दिल की बुझाए कली दिल की खिलाए ग़म-ओ-रंज घटाए रह-ओ-रस्म

बढ़ाए जो कहो कुछ तो ख़फ़ा हो कहे शिकवे की ज़रूरत जो यही है तो चाहो जो

चाहोगे तो क्या है निबाहोगे तो क्या है बहुत इतराओ दिल दे के ये किस काम का दिल

है ग़म-ओ-अंदोह का मारा अभी चाहूँ तो मैं रख दूँ इसे तलवों से मसल कर अभी मुँह

देखते रह जाओ कि हैं उन को हुआ क्या कि इन्हों ने मिरा दिल ले के मिरे हाथ से खोया

अहबाब-ओ-अक़ारिब के बरताव कोई देखे

अव्वल तो मुझे गाढ़ा ऊपर से दबाते हैं

फ़ना के बा'द इस दुनिया में कुछ बाक़ी नहीं रहता

फ़क़त इक नाम अच्छा या बुरा मशहूर रहता है

मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी

बुज़ुर्गों की दुआ ने मार डाला

गए हम दैर से काबे मगर ये कह के फिर आए

कि तेरी शक्ल कुछ अच्छी वहीं मालूम होती है

हस्ती-ए-ग़ैर का सज्दा है मोहब्बत में गुनाह

आप ही अपनी परस्तिश के सज़ा-वार हैं हम

तुम क्यूँ शब-ए-जुदाई पर्दे में छुप गए हो

क़िस्मत के और तारे सब आसमान पर हैं

जो पूछा मुँह दिखाने आप कब चिलमन से निकलेंगे

तो बोले आप जिस दिन हश्र में मदफ़न से निकलेंगे

तेरे मूए-ए-मिज़ा खटकते हैं

दिल के छालों में नोक-ए-ख़ार कहाँ

मैं तिरी राह-ए-तलब में ब-तमन्ना-ए-विसाल

महव ऐसा हूँ कि मिटने का भी कुछ ध्यान नहीं

सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है

दैर-ओ-हरम की बाबत झगड़े फ़ुज़ूल डाले

साक़ी ने लगी दिल की इस तरह बुझा दी थी

इक बूँद छिड़क दी थी इक बूँद चखा दी थी

तसव्वुर में तिरा दर अपने सर तक खींच लेता हूँ

सितमगर मैं नहीं चलता तिरी दीवार चलती है

बुत-ख़ाने में क्या याद-ए-इलाही नहीं मुमकिन

नाक़ूस से क्या कार-ए-अज़ाँ हो नहीं सकता

किसी के कम हैं किसी के बहुत मगर ज़ाहिद

गुनाह करने को क्या पारसा नहीं करते

ज़ुल्फ़ को क्यूँ जकड़ के बाँधा है

उस ने बोसा लिया था गाल का क्या

आप से मुझ को मोहब्बत जो नहीं है सही

और ब-क़ौल आप के होने को अगर है भी तो क्या

जनाब-ए-ख़िज़्र राह-ए-इश्क़ में लड़ने से क्या हासिल

मैं अपना रास्ता ले लूँ तुम अपना रास्ता ले लो

उन्हों ने क्या किया और क्या नहीं करते

हज़ार कुछ हो मगर इक वफ़ा नहीं करते

ख़ूब इस दिल पे तिरी आँख ने डोरे डाले

ख़ूब काजल ने तिरी आँख में डोरा खींचा

सुनोगे हाल जो मेरा तो दाद क्या दोगे

यही कहोगे कि झूटा है तू ज़माने का

क़ब्र पर क्या हुआ जो मेला है

मरने वाला निरा अकेला है

वो पहली सब वफ़ाएँ क्या हुईं अब ये जफ़ा कैसी

वो पहली सब अदाएँ क्या हुईं अब ये अदा क्यूँ है

ईसा कभी जाते लेकिन तुम्हारे ग़म में

वो भी तो मर रहे हैं जो आसमान पर हैं

चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की

तौबा उड़ा के ले गई बोतल शराब की

आह-ए-रसा ख़ुदा के लिए देख-भाल के

उन का भी घर मिला हुआ दुश्मन के घर से है

किसी ने देखा तिरे हुस्न को

मिरी सूरत-ए-हाल देखी गई

जलेगा दिल तुम्हें बज़्म-ए-अदू में देख कर मेरा

धुआँ बन बन के अरमाँ महफ़िल-ए-दुश्मन से निकलेंगे

बिछड़ना भी तुम्हारा जीते-जी की मौत है गोया

उसे क्या ख़ाक लुत्फ़-ए-ज़िंदगी जिस से जुदा तुम हो

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