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Qamar Abbas Qamar's Photo'

क़मर अब्बास क़मर

1993 | दिल्ली, भारत

नई नस्ल के नुमाइंदा शाइर, नौजवानों में मक़बूल, ग़ज़ल की शायरी की एक मुनफ़रिद आवाज़

नई नस्ल के नुमाइंदा शाइर, नौजवानों में मक़बूल, ग़ज़ल की शायरी की एक मुनफ़रिद आवाज़

क़मर अब्बास क़मर के शेर

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तिश्ना-लब ऐसा कि होंटों पे पड़े हैं छाले

मुतमइन ऐसा हूँ दरिया को भी हैरानी है

मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश

मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी

पहाड़ पेड़ नदी साथ दे रहे हैं मिरा

ये तेरी ओर मिरा आख़िरी सफ़र तो नहीं

ये एहतिजाज अजब है ख़िलाफ़-ए-तेग़-ए-सितम

ज़मीं में जज़्ब नहीं हो रहा है ख़ूँ मेरा

सर्द रातों का तक़ाज़ा था बदन जल जाए

फिर वो इक आग जो सीने से लगाई मैं ने

बहुत ग़ुरूर था सूरज को अपनी शिद्दत पर

सो एक पल ही सही बादलों से हार गया

मैं रो पड़ूँगा बहुत भींच के गले लगा

मैं पहले जैसा नहीं हूँ किसी का दुख है मुझे

मजनूँ से ये कहना कि मिरे शहर में जाए

वहशत के लिए एक बयाबान अभी है

पलटने वाले परिंदों पे बद-हवासी है

मैं इस ज़मीं का कहीं आख़िरी शजर तो नहीं

यूँ रात गए किस को सदा देते हैं अक्सर

वो कौन हमारा था जो वापस नहीं आया

अब कि मुमकिन है ज़मीं ख़ून की प्यासी रहे

इक क़बीले ने मेरी बात नहीं मानी है

मुझे बचा ले मिरे यार सोज़-ए-इमशब से

कि इक सितारा-ए-वहशत जबीं से गुज़रेगा

अलग अलग सी है सम्तों का अब सफ़र दरपेश

तुम्हारा हाथ मिरे हाथ से जुदा भी नहीं

इस के ठहराओ से थम जाती है सब मौज-ए-हयात

या'नी दरिया में नहीं साँस में गहराई है

शिद्दत-ए-ग़म से कोई ग़म भी नहीं हो पाया

जाने वाले तिरा मातम भी नहीं हो पाया

हम वो नादाँ थे जो शहरों को सुकूँ जानते थे

तुम नहीं आए इधर तुम ने समझदारी की

अना ने दोनों के बीच नफ़रत की एक दीवार खींच दी है

उधर से आने का मसअला है इधर से जाने का मसअला है

ख़िज़ाँ-रुतों के परिंदो! पलट के जाओ

दरख़्त देने लगे हैं हरी भरी आवाज़

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