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नासिर काज़मी के शेर
ऐ याद-ए-दोस्त आज तू जी भर के दिल दुखा
शायद ये रात हिज्र की आए न फिर कभी
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वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिए
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न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो
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भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
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टैग : मायूसी
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ये कह के छेड़ती है हमें दिल-गिरफ़्तगी
घबरा गए हैं आप तो बाहर ही ले चलें
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नींद आती नहीं तो सुबह तलक
गर्द-ए-महताब का सफ़र देखो
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टैग : हिज्र
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कौन अच्छा है इस ज़माने में
क्यूँ किसी को बुरा कहे कोई
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सूरज सर पे आ पहुँचा
गर्मी है या रोज़-ए-जज़ा
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टैग : गर्मी
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न मिला कर उदास लोगों से
हुस्न तेरा बिखर न जाए कहीं
व्याख्या
आज नासिर काज़मी के एक ख़ूबसूरत शे’र की व्याख्या करते हैं। नासिर काज़मी ने शायरी को आसान रूपकों और सरल शब्दों को वो आकार दिए कि जिनका जोड़ मुश्किल ही से मिलता है। कभी कभी तो ये महसूस होता है कि नासिर काज़मी के अशआर के अलफ़ाज़ ज़ेवर की तरह हैं जो दिल फ़रेब हुस्न अता करते हैं। सादा और सहल अंदाज़ में दुनिया जहान के अर्थ अदा करने का हुनर कोई नासिर काज़मी से सीखे।
इस शे’र में शायर अपने महबूब से कहता है कि तू बहुत नाज़ुक जिस्म, नाज़ुक मिज़ाज, नाज़ुक ख़्याल है। तेरी ये नज़ाकत और सादगी तेरा हुस्न है। तेरी शोख़ी, तेरी शरारत, तेरी शगुफ़्तगी तेरा ला उबालीपन, ये सब गुण तेरे मिज़ाज का हिस्सा हैं, जिनको ज़रा सा भी मलाल, रंज और दर्द अस्त-व्यस्त कर सकता है। तेरे हुस्न को दुख-दर्द की छाया भी मैला कर सकती है, ग़म का मामूली सा असर भी गंदा कर सकता है और दुख-चिंता बदरंग कर सकते हैं। इसलिए तेरे हुस्न की ख़ैर इसी में है कि तू मुझ जैसे उदास लोगों से मेल-जोल बंद कर दे। बक़ौल शायर, ये ग़म का ग़ुबार तेरे हुस्न को ख़राब करने के लिए काफ़ी है।
शे’र के ऊपरी हुस्न को देखने के साथ साथ आंतरिक हुस्न को भी देखना बहुत ज़रूरी है। एक नुक्ता जो इस शे’र में पोशीदा है वो शायर का दुखी और उदास होना है और उसके महबूब का शगुफ़्ता मिज़ाज, हसीन और सादा-लौह होना है। अर्थात ये सादा-मिज़ाज महबूब जानता ही नहीं है कि शायर जैसे दुखी इंसान से मिलकर और तो क्या ही होगा अलबत्ता ख़ुद उसका हुस्न मांद पड़ जाएगा। उसका ऊपरी हुस्न जो फूल की तरह तर-ओ-ताज़ा है, चांदनी की तरह सादा है और ओस की तरह नाज़ुक है, ज़रा सी भी दुख की गंदगी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। इस ख़ूबसूरत अंदाज़ में शायर ख़ुद को पीड़ित,दुखी और उदास बताने और अपने महबूब को नाज़ुक-मिज़ाज,कोमल, हसीन और मासूम बताने में कामयाब है।
सुहैल आज़ाद
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नई दुनिया के हंगामों में 'नासिर'
दबी जाती हैं आवाज़ें पुरानी
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मैं इस जानिब तू उस जानिब
बीच में पत्थर का दरिया था
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मुद्दत से कोई आया न गया सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
इन ख़ाली कमरों में 'नासिर' अब शम्अ जलाऊँ किस के लिए
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वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का
जो पिछली रात से याद आ रहा है
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गए दिनों का सुराग़ ले कर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
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दिल तो मेरा उदास है 'नासिर'
शहर क्यूँ साएँ साएँ करता है
जिन्हें हम देख कर जीते थे 'नासिर'
वो लोग आँखों से ओझल हो गए हैं
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टैग : याद-ए-रफ़्तगाँ
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इस क़दर रोया हूँ तेरी याद में
आईने आँखों के धुँदले हो गए
तू ने तारों से शब की माँग भरी
मुझ को इक अश्क-ए-सुब्ह-गाही दे
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आज तो बे-सबब उदास है जी
इश्क़ होता तो कोई बात भी थी
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तिरे बग़ैर भी ख़ाली नहीं मिरी रातें
है एक साया मिरे साथ हम-नशीं की तरह
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वो दिल-नवाज़ है लेकिन नज़र-शनास नहीं
मिरा इलाज मिरे चारा-गर के पास नहीं
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टैग : चारागर
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अकेले घर से पूछती है बे-कसी
तिरा दिया जलाने वाले क्या हुए
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दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तिरा वादा-ए-शब याद आया
मैं सोते सोते कई बार चौंक चौंक पड़ा
तमाम रात तिरे पहलुओं से आँच आई
ये आप हम तो बोझ हैं ज़मीन का
ज़मीं का बोझ उठाने वाले क्या हुए
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तेरी मजबूरियाँ दुरुस्त मगर
तू ने वादा किया था याद तो कर
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नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिए
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया मैं बाहर जाऊँ किस के लिए
व्याख्या
आज नासिर काज़मी के इस हसीन शे’र की व्याख्या करते हैं। नासिर काज़मी ने शायरी में जिस कल्पना और जिस शब्द-क्रम का अनोखा मिश्रण किया है वो दिल पर असर करने की हर तरह की सलाहियत रखती है। नासिर काज़मी ने इस शे’र में निहायत आसान शब्दों में फ़िराक़-ए-यार का अफ़साना सुना दिया है। वो यार वो महबूब जो हर वक़्त उनके होश-हवास पर हावी है और जो एक लम्हे के लिए भी उनके ज़ेहन व दिमाग़ से नहीं उतरा है। महबूब से मुलाक़ात को इस शे’र में एक ऐसे उत्सव की तरह बयान किया गया है जिसके लिए नए लिबास का चुनाव और लिबास के साथ साथ चेहरे के शृंगार का ख़ास ख़्याल रखा जाता है। अपने महबूब से मुलाक़ात के लिए जिस ख़ुश-दिली के साथ शायर ख़ुद को तैयार करता है वही ख़ुश-दिली निराशा और उदासी में बदल जाती है, जब शायर का महबूब ग़ैर मौजूद होता है।
ये शे’र जुदाई का फ़साना तो सुनाता ही है, निराशा का एक ऐसा दृश्य भी पेश करता है जिसके प्रभाव से सुनने वाले या पढ़ने वाले भी दुखी हो जाते हैं। ज़ाहिर है कि जिस घड़ी शायर का महबूब शहर में मौजूद था और शायर की मुलाक़ात हुआ करती थी उस ख़ुशी का क्या ठिकाना हो सकता है मगर अफ़सोस बहुत अफ़सोस जब उसका महबूब शहर छोड़कर चला गया और उसके जाने के साथ शायर के लिए शहर की तमाम रौनक़ें ख़त्म हो गईं, शहर का आलम ही बदल गया, शहर का रंग बे रंगी में तबदील हो गया। शायर इतना दुखी और उदास है कि उसका जी बाहर निकलने को चाह रहा है और न ही अपने लिबास और अपने बालों की साज–सज्जा की तरफ़ मुतवज्जा होने को।
ये परिदृश्य इतना हक़ीक़ी है कि हम भी जैसे इस पीड़ा और इस तकलीफ़ को ख़ुद अपने दिल में महसूस कर सकते हैं। बारहा हम भी कहीं न कहीं इस तकलीफ़ से गुज़रे ज़रूर हैं। हम महसूस करते हैं कि जहाँ-जहाँ हम अपने दोस्त और अपने महबूब के साथ घूमते रहे हैं, जिन पार्कों और रेस्तोरानों में वक़्त गुज़ारी की है वो सब अचानक बे रंग और बे रूह लगने लगते हैं जब हमारा दोस्त और हमारा यार हमसे बिछड़ जाता है या वक़्ती तौर पर हमसे दूर चला जाता है।
एक और अहम बात जो इस शे’र को पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि शायर ने जिन शब्दों चयन किया है वो इतने आसान हैं कि जिसने शे’र के ऊपरी हुस्न को ग़ैर मामूली तौर पर दमका दिया है। ये दमक इतनी तेज़ है कि इसके पीछे कर्बनाक मंज़र की जो सेरबीन चल रही है उसे साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। अगर सुननेवाला या पढ़नेवाला इस बेचैनी तक पहुंच जाता है तो इस शे’र का हक़ अदा होजाता है।
अपने महबूब के बिना शहर से गुज़रने का ख़्याल ही बहुत जान लेवा है। जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को रूहाँसा कर सकता है।
इसी ख़्याल को डाक्टर बशीर बद्र इस तरह बयान करते हैं:
उन्ही रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक रोक पूछा तेरा हमसफर कहाँ है
नासिर काज़मी ने दर्द व ग़म, कर्ब व बेचैनी को जिस आसान अंदाज़ में बयान कर सांसारिक रंग दिया है इसकी मिसाल विरल ही मिलती है।
सुहैल आज़ाद
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हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़्सत हुआ तब याद आया
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तुझ बिन सारी उम्र गुज़ारी
लोग कहेंगे तू मेरा था
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जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे
मेरे हक़ में भी कुछ सुना ही दे
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पहाड़ों से चली फिर कोई आँधी
उड़े जाते हैं औराक़-ए-ख़िज़ानी
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उन्हें सदियों न भूलेगा ज़माना
यहाँ जो हादसे कल हो गए हैं
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टैग : हादसा
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जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया
उस ने मंज़िल पे ला के छोड़ दिया
उम्र भर जिस का रास्ता देखा
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टैग : मंज़िल
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तिरे फ़िराक़ की रातें कभी न भूलेंगी
मज़े मिले उन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे
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बुलाऊँगा न मिलूँगा न ख़त लिखूँगा तुझे
तिरी ख़ुशी के लिए ख़ुद को ये सज़ा दूँगा
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ओ मेरे मसरूफ़ ख़ुदा
अपनी दुनिया देख ज़रा
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टैग : ख़ुदा
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हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर'
उदासी बाल खोले सो रही है
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वक़्त अच्छा भी आएगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी
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टैग : वक़्त
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निय्यत-ए-शौक़ भर न जाए कहीं
तू भी दिल से उतर न जाए कहीं
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ओ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ
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होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीअत कभी कभी
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टैग : वहशत
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रात कितनी गुज़र गई लेकिन
इतनी हिम्मत नहीं कि घर जाएँ
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आँच आती है तिरे जिस्म की उर्यानी से
पैरहन है कि सुलगती हुई शब है कोई
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टैग : आंच
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शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
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टैग : दिल
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ज़रा सी बात सही तेरा याद आ जाना
ज़रा सी बात बहुत देर तक रुलाती थी
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
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मुझे ये डर है तिरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबीअत मिरी उदास नहीं
गली गली मिरी याद बिछी है प्यारे रस्ता देख के चल
मुझ से इतनी वहशत है तो मेरी हदों से दूर निकल
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मैं तो बीते दिनों की खोज में हूँ
तू कहाँ तक चलेगा मेरे साथ
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