रियाज़ ख़ैराबादी के शेर
'रियाज़' आने में है उन के अभी देर
चलो हो आएँ मर्ग-ए-ना-गहाँ तक
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क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
मुझ से लिपटे हैं मिरे नाम से डरने वाले
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जिस दिन से हराम हो गई है
मय ख़ुल्द-मक़ाम हो गई है
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मर गया हूँ पे तअ'ल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
मेरे हिस्से की छलक जाती है पैमाने से
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शोख़ी से हर शगूफ़े के टुकड़े उड़ा दिए
जिस ग़ुंचे पर निगाह पड़ी दिल बना दिया
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मेरी सज-धज तो कोई इश्क़-ए-बुताँ में देखे
साथ क़श्क़े के है ज़ुन्नार-ए-बरहमन कैसा
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ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
इक बोरिया है मैं हूँ मिरी ख़ानक़ाह है
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छुपता नहीं छुपाने से आलम उभार का
आँचल की तह से देख नुमूदार क्या हुआ
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हम जानते हैं लुत्फ़-ए-तक़ाज़ा-ए-मय-फ़रोश
वो नक़्द में कहाँ जो मज़ा है उधार में
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रंग लाएगा दीदा-ए-पुर-आब
देखना दीदा-ए-पुर-आब का रंग
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ये कम-बख़्त इक जहान-ए-आरज़ू है
न हो कोई हमारा दिल हो हम हूँ
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ज़ेर-ए-मस्जिद मय-कदा मैं मय-कदे में मस्त-ए-ख़्वाब
चौंक उठा जब दी मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ बाला-ए-सर
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वो जोबन बहुत सर उठाए हुए हैं
बहुत तंग बंद-ए-क़बा है किसी का
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अब मुजरिमान-ए-इश्क़ से बाक़ी हूँ एक मैं
ऐ मौत रहने दे मुझे इबरत के वास्ते
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डराता है हमें महशर से तू वाइज़ अरे जा भी
ये हंगामे तो हम ने रोज़ कू-ए-यार में देखे
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नज्द में क्या क़ैस का है उर्स आज
नंगे नंगे जम्अ' हैं हम्माम में
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क़ुलक़ुल-ए-मीना सदा नाक़ूस की शोर-ए-अज़ाँ
ठंडे ठंडे दीदनी है गर्मी-ए-बाज़ार-ए-सुब्ह
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कहाँ ये बात हासिल है तिरी मस्जिद को ऐ ज़ाहिद
सहर होते जो हम ने देखे हैं झुरमुट शिवाले में
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कली चमन में खिली तो मुझे ख़याल आया
किसी के बंद-ए-क़बा की गिरह खुली होगी
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निशाना बने दिल रहे तीर दिल में
निशानी नहीं इस निशानी से अच्छी
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टैग : तीर
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कोई ज़माने में रोता है कोई हँसता है
यहाँ किसी से किसी की सदा नहीं मिलती
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लब-ए-मय-गूँ का तक़ाज़ा है कि जीना होगा
आँख कहती है तुझे ज़हर भी पीना होगा
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मेरे घर में ग़ैर के डर से कभी छुप जाइए
ग़ैर के घर में छुपे थे आज किस की डर से आप
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ग़लत है आप न थे हम-कलाम ख़ल्वत में
अदू से आप की तस्वीर बोलती होगी
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था बहुत उन को गिलौरी का उठाना मुश्किल
दस्त-ए-नाज़ुक से दिया पान बड़ी मुश्किल से
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पीरी में 'रियाज़' अब भी जवानी के मज़े हैं
ये रीश-ए-सफ़ेद और मय-ए-होश-रुबा सुर्ख़
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एक वाइज़ है कि जिस की दावतों की धूम है
एक हम हैं जिस के घर कल मय उधार आने को थी
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ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी
बराबर मस्जिद-ए-जामे के हम ने अब दुकाँ रख दी
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ख़ुदा आबाद रक्खे मय-कदे को
बहुत सस्ते छुटे दुनिया-ओ-दीं से
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'रियाज़' तौबा न टूटे न मय-कदा छूटे
ज़बाँ का पास रहे वज़्अ का निबाह रहे
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सुना है 'रियाज़' अपनी दाढ़ी बढ़ा कर
बुढ़ापे में अल्लाह वाले हुए हैं
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ये मय-कदा है कि मस्जिद ये आब है कि शराब
कोई भी ज़र्फ़ बराए वुज़ू नहीं बाक़ी
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बहार आते ही फूलों ने छावनी छाई
कि ढूँढता हूँ मुझे आशियाँ नहीं मिलता
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कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
टट्टी की आड़ में है मज़ा कुछ शिकार का
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ज़रा जो हम ने उन्हें आज मेहरबाँ देखा
न हम से पूछिए क्या रंग-ए-आसमाँ देखा
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अहल-ए-हरम से कह दो कि बिगड़ी नहीं है बात
सब रिंद जानते हैं अभी पारसा मुझे
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क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
तौबा कर लूँ तो कभी मय-कदा आबाद न हो
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न आया हमें इश्क़ करना न आया
मरे उम्र-भर और मरना न आया
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क्यूँ न टूटे मिरी तौबा जो कहे तू साक़ी
पी ले पी ले अरे घनघोर घटा छाई है
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इतनी पी है कि ब'अद-ए-तौबा भी
बे-पिए बे-ख़ुदी सी रहती है
भर भर के जाम बज़्म में छलकाए जाते हैं
हम उन में हैं जो दूर से तरसाए जाते हैं
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ख़्वाब में भी तो नज़र भर के न देखा उन को
ये भी आदाब-ए-मोहब्बत को गवारा न हुआ
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घर में दस हों तो ये रौनक़ नहीं होगी घर में
एक दीवाने से आबाद है सहरा कैसा
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ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की
रातें हैं उन में बंद हमारी शबाब की
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पी के ऐ वाइज़ नदामत है मुझे
पानी पानी हूँ तिरी तक़रीर से
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कह के मैं दिल की कहानी किस क़दर खोया गया
हैं फ़सानों पर फ़साने मेरे अफ़्साने के बा'द
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ग़ुरूर भी जो करूँ मैं तो आजिज़ी हो जाए
ख़ुदी में लुत्फ़ वो आए कि बे-ख़ुदी हो जाए
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ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
तो दो घड़ी फ़िराक़ में अपनी बसर न हो
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टैग : इंतिज़ार
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आगे कुछ बढ़ कर मिलेगी मस्जिद-ए-जामे 'रियाज़'
इक ज़रा मुड़ जाइएगा मय-कदे के दर से आप
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डर है न दुपट्टा कहीं सीने से सरक जाए
पंखा भी हमें पास से झलने नहीं देते
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