आग़ा अकबराबादी के शेर
हमें तो उन की मोहब्बत है कोई कुछ समझे
हमारे साथ मोहब्बत उन्हें नहीं तो नहीं
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किसी को कोसते क्यूँ हो दुआ अपने लिए माँगो
तुम्हारा फ़ाएदा क्या है जो दुश्मन का ज़रर होगा
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रक़ीब क़त्ल हुआ उस की तेग़-ए-अबरू से
हराम-ज़ादा था अच्छा हुआ हलाल हुआ
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टैग : रक़ीब
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हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
देखिए तो अब सर-ए-बाज़ार रुस्वा कौन है
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मय-कशों में न कोई मुझ सा नमाज़ी होगा
दर-ए-मय-ख़ाना पे बिछता है मुसल्ला अपना
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सनम-परस्ती करूँ तर्क क्यूँकर ऐ वाइ'ज़
बुतों का ज़िक्र ख़ुदा की किताब में देखा
हाथ दोनों मिरी गर्दन में हमाइल कीजे
और ग़ैरों को दिखा दीजे अँगूठा अपना
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किसी सय्याद की पड़ जाए न चिड़िया पे नज़र
आप सरकाएँ न महरम से दुपट्टा अपना
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कुछ ऐसी पिला दे मुझे ऐ पीर-ए-मुग़ाँ आज
क़ैंची की तरह चलने लगी मेरी ज़बाँ आज
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ता-मर्ग मुझ से तर्क न होगी कभी नमाज़
पर नश्शा-ए-शराब ने मजबूर कर दिया
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देखिए पार हो किस तरह से बेड़ा अपना
मुझ को तूफ़ाँ की ख़बर दीदा-ए-तर देते हैं
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बुत नज़र आएँगे माशूक़ों की कसरत होगी
आज बुत-ख़ाना में अल्लाह की क़ुदरत होगी
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टैग : बुत
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शराब पीते हैं तो जागते हैं सारी रात
मुदाम आबिद-ए-शब-ज़िंदादार हम भी हैं
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टैग : शराब
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दो-शाला शाल कश्मीरी अमीरों को मुबारक हो
गलीम-ए-कोहना में जाड़ा फ़क़ीरों का बसर होगा
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टैग : मुफ़्लिसी
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ज़ाहिदो कअ'बे की जानिब खींचते हो क्यूँ मुझे
जी नहीं लगता कभी मज़दूर का बेगार में
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शिकायत मुझ को दोनों से है नासेह हो कि वाइज़ हो
न समझा हूँ न समझूँ सर फिरा ले जिस का जी चाहे
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दर-ब-दर फिरने ने मेरी क़द्र खोई ऐ फ़लक
उन के दिल में ही जगह मिलती जो ख़ल्वत माँगता
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इन परी-रूयों की ऐसी ही अगर कसरत रही
थोड़े अर्सा में परिस्ताँ आगरा हो जाएगा
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टैग : आगरा
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मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
आई है शीशा-ओ-साग़र की तलबगार घटा
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टैग : मय-कशी
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जी चाहता है उस बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
तस्बीह तोड़ डालिए ज़ुन्नार देख कर
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टैग : इश्क़
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पान खा कर जो उगाल आप ने थूका साहब
जौहरी महव हुए लाल-ए-यमन याद आया
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टैग : पान
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रिंद-मशरब हैं किसी से हमें कुछ काम नहीं
दैर अपना है न काबा न कलीसा अपना
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ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
अपने दामन को लहू से मिरे भर जाने दे
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तवाफ़-ए-काबा को क्या जाएँ हज नहीं वाजिब
कलाल-ख़ाने के कुछ दीन-दार हम भी हैं
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देखो तो एक जा पे ठहरती नहीं नज़र
लपका पड़ा है आँख को क्या देख-भाल का
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दश्त-ए-वहशत-ख़ेज़ में उर्यां है 'आग़ा' आप ही
क़ासिद-ए-जानाँ को क्या देता जो ख़िलअत माँगता
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जुनूँ के हाथ से है इन दिनों गरेबाँ तंग
क़बा पुकारती है तार तार हम भी हैं
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वादा-ए-बादा-ए-अतहर का भरोसा कब तक
चल के भट्टी पे पिएँ जुर'आ-ए-इरफ़ाँ कैसा
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