अब्दुल मजीद सालिक के शेर
तुझे कुछ इश्क़ ओ उल्फ़त के सिवा भी याद है ऐ दिल
सुनाए जा रहा है एक ही अफ़्साना बरसों से
जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो न ज़ीस्त ने वफ़ा की
अभी आ के वो न बैठे कि हम उठ गए जहाँ से
इश्क़ है बे-गुदाज़ क्यूँ हुस्न है बे-नियाज़ क्यूँ
मेरी वफ़ा कहाँ गई उन की जफ़ा को क्या हुआ
हाल-ए-दिल सुन के वो आज़ुर्दा हैं शायद उन को
इस हिकायत पे शिकायत का गुमाँ गुज़रा है
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चराग़-ए-ज़िंदगी होगा फ़रोज़ाँ हम नहीं होंगे
चमन में आएगी फ़स्ल-ए-बहाराँ हम नहीं होंगे
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हमारे डूबने के बाद उभरेंगे नए तारे
जबीन-ए-दहर पर छटकेगी अफ़्शाँ हम नहीं होंगे
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अब नहीं जन्नत मशाम-ए-कूचा-ए-यार की शमीम
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ क्या हुई बाद-ए-सबा को क्या हुआ
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मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से
कि मिला जमाल-ए-साक़ी को ये तनतना कहाँ से
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नई शमएँ जलाओ आशिक़ी की अंजुमन वालो
कि सूना है शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना बरसों से
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