अब्दुल मन्नान समदी के शेर
परिंदे सब नहीं ज़िंदान में मारे गए हैं
क़फ़स में कुछ तो कुछ नक़्ल-ए-मकानी में मरे हैं
उलट कर जब भी देखी है किताब-ए-ज़िंदगी हम ने
तो हर इक लफ़्ज़ के पीछे कोई इक हादिसा निकला
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वही इक क़िस्सा अब तक ध्यान में रौशन नहीं होता
तसलसुल जिस से वाबस्ता है पिछली दास्तानों का
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बदन पर इस-क़दर बारिश मिरे होती है बोसों की
कि जब बाँहें तिरी मुझ पर खुली हों डालियाँ बन कर
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तसव्वुर की हदों से दूर जा कर कैसे देखेंगे
अगर तुम से तअ'ल्लुक़ ग़ाएबाना भी नहीं होगा
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वही रुस्वाई का मेरी सबब आख़िर बने मौला
वही जो लोग कल शामें सुहानी करने वाले थे
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कुछ बदन के थे तक़ाज़े कुछ शरारत दिल की थी
आज लेकिन इश्क़ अपना जावेदाँ होने को था
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