अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी के शेर
दर्द बढ़ कर दवा न हो जाए
ज़िंदगी बे-मज़ा न हो जाए
मेरी बेताबियों से घबरा कर
कोई मुझ से ख़फ़ा न हो जाए
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दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर'
दर्द ख़ुद चारासाज़ हो जाए
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ये और बात कि इक़रार कर सकें न कभी
मिरी वफ़ा का मगर उन को ए'तिबार तो है
हमें दुनिया में अपने ग़म से मतलब
ज़माने की ख़ुशी से वास्ता क्या
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वो तअल्लुक़ है तिरे ग़म से कि अल्लाह अल्लाह
हम को हासिल हो ख़ुशी भी तो गवारा न करें
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मुझे तो कल भी न था उन पर इख़्तियार कोई
और उन को मुझ पे वही इख़्तियार आज भी है
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मुझे आँखें दिखाएगी भला क्या गर्दिश-ए-दौराँ
मिरी नज़रों ने देखा है तिरा ना-मेहरबाँ होना
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मेरे सुकून-ए-क़ल्ब को ले कर चले गए
और इज़्तिराब-ए-दर्द-ए-जिगर दे गए मुझे
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मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है
मसर्रत हासिल-ए-ग़म हो गई है
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