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अमानत लखनवी

1815 - 1858 | लखनऊ, भारत

अपने नाटक 'इन्द्र सभा' के लिए प्रसिद्ध, अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह के समकालीन

अपने नाटक 'इन्द्र सभा' के लिए प्रसिद्ध, अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह के समकालीन

अमानत लखनवी के शेर

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जी चाहता है साने-ए-क़ुदरत पे हूँ निसार

बुत को बिठा के सामने याद-ए-ख़ुदा करूँ

साँवले तन पे क़बा है जो तिरे भारी है

लाला कहता है चमन में कि ये 'गिरधारी' है

हंगाम-ए-वस्ल रद्द-ओ-बदल मुझ से है अबस

निकलेगा कुछ काम नहीं और हाँ से आज

चुटकियाँ दिल में मिरे लेने लगा नाख़ुन-ए-इश्क़

गुल-बदन देख के उस गुल का बदन याद आया

वहम ही वहम में अपनी हुई औक़ात बसर

कमर-ए-यार को भूले तो दहन याद आया

सर्व को देख के कहता है दिल-ए-बस्ता-ए-ज़ुल्फ़

हम गिरफ़्तार हैं इस बाग़ में आज़ाद हैं सब

किस क़दर दिल से फ़रामोश किया आशिक़ को

कभी आप को भूले से भी मैं याद आया

किस तरह 'अमानत' रहूँ ग़म से मैं दिल-गीर

आँखों में फिरा करती है उस्ताद की सूरत

गाली के सिवा हाथ भी चलता है अब उन का

हर रोज़ नई होती है बेदाद की सूरत

बोसा आँखों का जो माँगा तो वो हँस कर बोले

देख लो दूर से खाने के ये बादाम नहीं

है लुत्फ़ हसीनों की दो-रंगी का 'अमानत'

दो चार गुलाबी हों तो दो चार बसंती

महशर का किया वा'दा याँ शक्ल दिखलाई

इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं

दामन पे लोटने लगे गिर गिर के तिफ़्ल-ए-अश्क

रोए फ़िराक़ में तो दिल अपना बहल गया

रवाँ दवाँ नहीं याँ अश्क चश्म-ए-तर की तरह

गिरह में रखते हैं हम आबरू गुहर की तरह

घर मिरे शब को जो वो रश्क-ए-क़मर निकला

हो गए परतव-ए-रुख़ से दर दीवार सफ़ेद

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