बक़ा उल्लाह 'बक़ा' के शेर
इश्क़ में बू है किबरियाई की
आशिक़ी जिस ने की ख़ुदाई की
बुलबुल से कहा गुल ने कर तर्क मुलाक़ातें
ग़ुंचे ने गिरह बाँधीं जो गुल ने कहीं बातें
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इश्क़ ने मंसब लिखे जिस दिन मिरी तक़दीर में
दाग़ की नक़दी मिली सहरा मिला जागीर में
छोड़ कर कूचा-ए-मय-ख़ाना तरफ़ मस्जिद के
मैं तो दीवाना नहीं हूँ जो चलूँ होश की राह
उल्फ़त में तिरी ऐ बुत-ए-बे-मेहर-ओ-मोहब्बत
आया हमें इक हाथ से ताली का बजाना
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इस बज़्म में पूछे न कोई मुझ से कि क्या हूँ
जो शीशा गिरे संग पे मैं उस की सदा हूँ
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ख़्वाहिश-ए-सूद थी सौदे में मोहब्बत के वले
सर-ब-सर इस में ज़ियाँ था मुझे मालूम न था
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देख आईना जो कहता है कि अल्लाह-रे मैं
उस का मैं देखने वाला हूँ 'बक़ा' वाह-रे मैं
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अपनी मर्ज़ी तो ये है बंदा-ए-बुत हो रहिए
आगे मर्ज़ी है ख़ुदा की सो ख़ुदा ही जाने
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ऐ इश्क़ तू हर-चंद मिरा दुश्मन-ए-जाँ हो
मरने का नहीं नाम का मैं अपने 'बक़ा' हूँ
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क़लम सिफ़त में पस-अज़-मरातिब बदन सना में तिरी खपाया
बदन ज़बाँ में ज़बाँ सुख़न में सुख़न सना में तिरी खपाया
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क्या तुझ को लिखूँ ख़त हरकत हाथ से गुम है
ख़ामा भी मिरे हाथ में अंगुश्त-ए-शशुम है
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बाँग-ए-तकबीर तो ऐसी है 'बक़ा' सीना-ख़राश
उँगलियाँ आप मोअज़्ज़िन ने धरीं कान के बीच
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कल के दिन जो गिर्द मय-ख़ाने के फिरते थे ख़राब
आज मस्जिद में जो देखा साहब-ए-सज्जादा हैं
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ये रिंद दे गए लुक़्मा तुझे तो उज़्र न मान
तिरा तो शैख़ तनूर ओ शिकम बराबर है
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है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें
उठवा के आँसुओं से दर-ओ-बाम दोश पर
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ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था
दाम दाने में निहाँ था मुझे मालूम न था
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रुश्द-ए-बातिन की तलब है तो कर ऐ शैख़ वो काम
पीर-ए-मय-ख़ाना जो ज़ाहिर में कुछ इरशाद करे
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मत तंग हो करे जो फ़लक तुझ को तंग-दस्त
आहिस्ता खींचिए जो दबे ज़ेर-ए-संग दस्त
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दिला उठाइए हर तरह उस की चश्म का नाज़
ज़माना ब तू न-साज़द तू बा ज़माना ब-साज़
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देखा तो एक शो'ले से ऐ शैख़-ओ-बरहमन
रौशन हैं शम-ए-दैर ओ चराग़-ए-हरम बहम
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बस पा-ए-जुनूँ सैर-ए-बयाबाँ तो बहुत की
अब ख़ाना-ए-ज़ंजीर में टुक बैठ के दम ले
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सैलाब से आँखों के रहते हैं ख़राबे में
टुकड़े जो मिरे दिल के बस्ते हैं दो-आबे में
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