बिस्मिल अज़ीमाबादी के शेर
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
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वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यूँ बताएँ क्या हमारे दिल में है
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न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे
ख़ुदा के वास्ते देखो न मुस्कुरा के मुझे
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तुम सुन के क्या करोगे कहानी ग़रीब की
जो सब की सुन रहा है कहेंगे उसी से हम
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हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएँगे
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टैग : प्रेरणादायक
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मजबूरियों को अपनी कहें क्या किसी से हम
लाए गए हैं, आए नहीं हैं ख़ुशी से हम
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अल्लाह तेरे हाथ है अब आबरू-ए-शौक़
दम घुट रहा है वक़्त की रफ़्तार देख कर
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टैग : वक़्त
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देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार
गुज़रे हज़ार बार तुम्हारी गली से हम
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एक दिन वो दिन थे रोने पे हँसा करते थे हम
एक ये दिन हैं कि अब हँसने पे रोना आए है
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जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन
पाँव फैलाने नहीं देती है चादर मुझ को
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टैग : मुफ़्लिसी
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सौदा वो क्या करेगा ख़रीदार देख कर
घबरा गया जो गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
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ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी हुई 'बिस्मिल'
न रो सके न कभी हँस सके ठिकाने से
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'बिस्मिल' बुतों का इश्क़ मुबारक तुम्हें मगर
इतने निडर न हो कि ख़ुदा का भी डर न हो
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दास्ताँ पूरी न होने पाई
ज़िंदगी ख़त्म हुई जाती है
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कहाँ क़रार है कहने को दिल क़रार में है
जो थी ख़िज़ाँ में वही कैफ़ियत बहार में है
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चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने
चमन रहा न रहे वो चमन के अफ़्साने
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आज़ादी ने बाज़ू भी सलामत नहीं रक्खे
ऐ ताक़त-ए-परवाज़ तुझे लाएँ कहाँ से
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किस हाल में हो कैसे हो क्या करते हो 'बिस्मिल'
मरते हो कि जीते हो ज़माने के असर से
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कहाँ तमाम हुई दास्तान 'बिस्मिल' की
बहुत सी बात तो कहने को रह गई ऐ दोस्त
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ये कह के देती जाती है तस्कीं शब-ए-फ़िराक़
वो कौन सी है रात कि जिस की सहर न हो
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इक ग़लत सज्दे से क्या होता है वाइज़ कुछ न पूछ
उम्र भर की सब रियाज़त ख़ाक में मिल जाए है
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ग़ैरों ने ग़ैर जान के हम को उठा दिया
बैठे जहाँ भी साया-ए-दीवार देख कर
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ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है
चमन वालों को नींद आती नहीं है
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टैग : ख़िज़ाँ
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हँसी 'बिस्मिल' की हालत पर किसी को
कभी आती थी अब आती नहीं है
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क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं
जी तो कहता है कि उठ जाइए मय-ख़ाने से
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उगल न संग-ए-मलामत ख़ुदा से डर नासेह
मिलेगा क्या तुझे शीशों के टूट जाने से
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रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है
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बयाबान-ए-जुनूँ में शाम-ए-ग़ुर्बत जब सताया की
मुझे रह रह कर ऐ सुब्ह-ए-वतन तू याद आया की
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