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हकीम नासिर

1947 - 2007 | कराची, पाकिस्तान

हकीम नासिर के शेर

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जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है

संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है

आप क्या आए कि रुख़्सत सब अंधेरे हो गए

इस क़दर घर में कभी भी रौशनी देखी थी

वो मुझे छोड़ के इक शाम गए थे 'नासिर'

ज़िंदगी अपनी उसी शाम से आगे बढ़ी

पत्थरो आज मिरे सर पे बरसते क्यूँ हो

मैं ने तुम को भी कभी अपना ख़ुदा रक्खा है

घर में जो इक चराग़ था तुम ने उसे बुझा दिया

कोई कभी चराग़ हम घर में फिर जला सके

उस के दिल पर भी कड़ी इश्क़ में गुज़री होगी

नाम जिस ने भी मोहब्बत का सज़ा रक्खा है

ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी

दे मुझ को दवा ऐसी कि आराम आए

आसान किस क़दर है समझ लो मिरा पता

बस्ती के बाद पहला जो वीराना आएगा

तुम्हारे बाद उजाले भी हो गए रुख़्सत

हमारे शहर का मंज़र भी गाँव जैसा है

दो घड़ी दर्द ने आँखों में भी रहने दिया

हम तो समझे थे बनेंगे ये सहारे आँसू

मय-कशी गर्दिश-ए-अय्याम से आगे बढ़ी

मेरी मदहोशी मिरे जाम से आगे बढ़ी

वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूँ

उस का क्या जानिए क्या हाल हुआ मेरे बाद

जिस ने भी मुझे देखा है पत्थर से नवाज़ा

वो कौन हैं फूलों के जिन्हें हार मिले हैं

ये तमाशा भी अजब है उन के उठ जाने के बाद

मैं ने दिन में इस से पहले तीरगी देखी थी

आप क्या आए कि रौशन सब अँधेरे हो गए

इस क़दर घर में कभी भी रौशनी देखी थी

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