मीर मेहदी मजरूह के शेर
चुरा के मुट्ठी में दिल को छुपाए बैठे हैं
बहाना ये है कि मेहंदी लगाए बैठे हैं
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कुछ अर्ज़-ए-तमन्ना में शिकवा न सितम का था
मैं ने तो कहा क्या था और आप ने क्या जाना
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क्या हमारी नमाज़ क्या रोज़ा
बख़्श देने के सौ बहाने हैं
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जान इंसाँ की लेने वालों में
एक है मौत दूसरा है इश्क़
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ग़ैरों को भला समझे और मुझ को बुरा जाना
समझे भी तो क्या समझे जाना भी तो क्या जाना
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शग़्ल-ए-उल्फ़त को जो अहबाब बुरा कहते हैं
कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या कहते हैं
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टैग : अहबाब
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इतना मरदूद हूँ कि डर है मुझे
क़ब्र से फेंक दे ज़मीं न कहीं
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ये जो चुपके से आए बैठे हैं
लाख फ़ित्ने उठाए बैठे हैं
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अपनी कश्ती का है ख़ुदा हाफ़िज़
पीछे तूफ़ाँ है सामने गिर्दाब
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किसी से इश्क़ अपना क्या छुपाएँ
मोहब्बत टपकी पड़ती है नज़र से
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अब्र की तीरगी में हम को तो
सूझता कुछ नहीं सिवाए शराब
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टैग : अब्र
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क्यूँ पास मिरे आ कर यूँ बैठे हो मुँह फेरे
क्या लब तिरे मिस्री हैं मैं जिन को चबा जाता
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आ ही कूदा था दैर में वाइ'ज़
हम ने टाला ख़ुदा ख़ुदा कर के
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न उस के लब को फ़क़त लाल कह के ख़त्म करो
अभी तो उस में बहुत सी है गुफ़्तुगू बाक़ी
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वो मेरे घर के सामने से जाएँ इस तरह
ऐ हम-नशीं रक़ीब का घर तो उधर नहीं
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हज़ारों घर हुए हैं इस से वीराँ
रहे आबाद सरकार-ए-मोहब्बत
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तुम्हें गर ख़ुश-ज़बाँ होना है साहब
तो लो मुँह में ज़रा मेरी ज़बाँ को
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जान देने के सिवा और भी तदबीर करूँ
वर्ना ये बात तो हम उस से सदा कहते हैं
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शौक़ से शौक़ है कुछ मंज़िल का
राहबर से भी बढ़े जाते हैं
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ये क्या कि हमीं मरते रहें लुत्फ़ तो जब है
तासीर-ए-मोहब्बत जो इधर हो तो उधर भी
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आमद आमद ख़िज़ाँ की है शायद
गुल शगुफ़्ता हुआ चमन में है
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तूफ़ान-ए-जहल ने मिरा जौहर मिटा दिया
मैं इक किताब ख़ूब हूँ पर आब-दीदा हूँ
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टैग : आब दीदा
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अब रक़ीब-ए-बुल-हवस हैं इश्क़-बाज़
दिल लगाने से भी नफ़रत हो गई
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सहल हो गरचे अदू को मगर उस का मिलना
इतना मैं ख़ूब समझता हूँ कि आसाँ तो नहीं
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टैग : अदू
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नए फ़ित्ने जो उठते हैं जहाँ में
सलाहें सब ये लेते हैं तुम्हीं से
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न तो सय्याद का खटका न ख़िज़ाँ का धड़का
हम को वो चैन क़फ़स में है कि बुस्ताँ में नहीं
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तरश्शोह हाँ करे जिस की नहीं पर
मिरी सौ जाँ तसद्दुक़ उस नहीं पर
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क्यूँ मेरी बूद-ओ-बाश की पुर्सिश है हर घड़ी
तुम तो कहो कि रहते हो दो दो पहर कहाँ
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तालिब-ए-दोस्त अलग रहते हैं सब से उन को
पास-ए-असनाम नहीं ख़्वाहिश-ए-इस्लाम नहीं
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ज़ाहिद पियाला थाम झिझकता है किस लिए
इस मुफ़्त की शराब के पीने से डर नहीं
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सुना हाल-ए-दिल-ए-'मजरूह' शब को
कोई हसरत सी हसरत थी बयाँ में
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कज-अदाई ये सब हमीं तक थी
अब ज़माने को इंक़लाब कहाँ
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कुछ हो मजरूह घुस चलो घर में
आज दर उस का है खुला चौपट
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उस के दर पर तो किसी की भी रसाई न हुई
ले के सय्याद क़फ़स को जो इधर से गुज़रा
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मिरे किस काम का है बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता
इसे रिश्वत में दूँगा पासबाँ को
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हर एक जानता है कि मुझ पर नज़र पड़ी
क्या शोख़ियाँ हैं उस निगह-ए-सेहर-कार में
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