मुमताज़ अतहर के शेर
फ़क़त आँखें चराग़ों की तरह से जल रही हैं
किसी की दस्तरस में है कहाँ कोई सितारा
मिरे ख़िलाफ़ शहादत है मो'तबर सब की
मगर किसी से किसी का बयाँ नहीं मिलता
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मुझे दाएरों के हुजूम में कहीं भेज दे
मिरी वुसअतों को दवाम कर कफ़-ए-कूज़ा-गर
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'अक्स रखता था न अपनी ज़ात में अपना कोई
कितने चेहरे आईनों के सामने रक्खे गए
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हवा जब कभी साहिली गीत छेड़े हुए हो
मैं पत्तों को ताली बजाते हुए देखता हूँ
कभी उस की मौजों में अफ़्लाक बहते मिले हैं
कभी उस को कश्ती चलाते हुए देखता हूँ
वो पानी में जब अपनी छब देखता है तो मैं भी
नदी चाँदनी में नहाते हुए देखता हूँ