सलाम मछली शहरी के शेर
यूँ ही आँखों में आ गए आँसू
जाइए आप कोई बात नहीं
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ऐ मिरे घर की फ़ज़ाओं से गुरेज़ाँ महताब
अपने घर के दर-ओ-दीवार को कैसे छोड़ूँ
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अब मा-हसल हयात का बस ये है ऐ 'सलाम'
सिगरेट जलाई शे'र कहे शादमाँ हुए
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ग़म मुसलसल हो तो अहबाब बिछड़ जाते हैं
अब न कोई दिल-ए-तन्हा के क़रीं आएगा
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कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
जब आँसुओं से भरी हों आँखें तो मुस्कुराना भी चाहते हैं
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टैग : बहाना
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तुम शराब पी कर भी होश-मंद रहते हो
जाने क्यूँ मुझे ऐसी मय-कशी नहीं आई
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टैग : मय-कशी
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रात दिल को था सहर का इंतिज़ार
अब ये ग़म है क्यूँ सवेरा हो गया
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शुक्रिया ऐ गर्दिश-ए-जाम-ए-शराब
मैं भरी महफ़िल में तन्हा हो गया
काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
जब उसी के पर्वर्दा चाँद उस पे हँसते हैं फूल मुस्कुराते हैं
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वो दिल से तंग आ के आज महफ़िल में हुस्न की तमकनत की ख़ातिर
नज़र बचाना भी चाहते हैं नज़र मिलाना भी चाहते हैं
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वो सिर्फ़ मैं हूँ जो सौ जन्नतें सजा कर भी
उदास उदास सा तन्हा दिखाई देने लगे
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मेरी फ़िक्र की ख़ुशबू क़ैद हो नहीं सकती
यूँ तो मेरे होंटों पर मस्लहत का ताला है
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मेरी मौत ऐ साक़ी इर्तिक़ा है हस्ती का
इक 'सलाम' जाता है एक आने वाला है
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अजीब बात है मैं जब भी कुछ उदास हुआ
दिया सहारा हरीफ़ों की बद-दुआओं ने
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आँसू हूँ हँस रहा हूँ शगूफ़ों के दरमियाँ
शबनम हूँ जल रहा हूँ शरारों के शहर में
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बुझ गई कुछ इस तरह शम्-ए-'सलाम'
जैसे इक बीमार अच्छा हो गया
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रोज़ पूजा के लिए फूल सजाता है 'सलाम'
जाने कब उस का ख़ुदा सू-ए-ज़मीं आएगा
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आज तो शम्अ हवाओं से ये कहती है 'सलाम'
रात भारी है मैं बीमार को कैसे छोड़ूँ
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कभी कभी तो सुना है हिला दिए हैं महल
हमारे ऐसे ग़रीबों की इल्तिजाओं ने
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