सलीम कौसर के शेर
क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं
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कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए
वो सो गया है मुझे ख़्वाब से जगाते हुए
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                                    टैग : ख़्वाब
 
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और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी
हम अपनी राय का इज़हार करना चाहते हैं
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                                    टैग : इज़हार
 
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मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है
हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया
तुम ने क्या सोच कर मोहब्बत की
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                                    टैग : इंतिक़ाम
 
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आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
हम तिरे वास्ते तय्यार हुआ करते थे
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तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है
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कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से
कभी दिल पर आँच नहीं आती कभी रंग ख़राब नहीं होता
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                                    टैग : आंच
 
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मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न कर
बिखर न जाऊँ कहीं मैं तिरी हिफ़ाज़त में
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मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ
मैं नसीब हूँ किसी और का मुझे माँगता कोई और है
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वक़्त रुक रुक के जिन्हें देखता रहता है 'सलीम'
ये कभी वक़्त की रफ़्तार हुआ करते थे
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पुकारते हैं उन्हें साहिलों के सन्नाटे
जो लोग डूब गए कश्तियाँ बनाते हुए
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दुनिया अच्छी भी नहीं लगती हम ऐसों को 'सलीम'
और दुनिया से किनारा भी नहीं हो सकता
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जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह न मिल सकी
तो फिर इस के मअ'नी तो ये हुए कि यहाँ ख़ुदा कोई और है
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रात को रात ही इस बार कहा है हम ने
हम ने इस बार भी तौहीन-ए-अदालत नहीं की
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तुम ने सच बोलने की जुरअत की
ये भी तौहीन है अदालत की
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देखते कुछ हैं दिखाते हमें कुछ हैं कि यहाँ
कोई रिश्ता ही नहीं ख़्वाब का ताबीर के साथ
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तमाम उम्र सितारे तलाश करता फिरा
पलट के देखा तो महताब मेरे सामने था
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बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद
रुका हुआ है ज़माना तिरे विसाल के बाद
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ये लोग इश्क़ में सच्चे नहीं हैं वर्ना हिज्र
न इब्तिदा न कहीं इंतिहा में आता है
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'सलीम' अब तक किसी को बद-दुआ दी तो नहीं लेकिन
हमेशा ख़ुश रहे जिस ने हमारा दिल दुखाया है
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क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़
घर में जो था बच गया और जो नहीं था जल गया
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कुछ इस तरह से वो शामिल हुआ कहानी में
कि इस के बाद जो किरदार था फ़साना हुआ
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ऐ मिरे चारागर तिरे बस में नहीं मोआमला
सूरत-ए-हाल के लिए वाक़िफ़-ए-हाल चाहिए
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                                    टैग : चारागर
 
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साँस लेने से भी भरता नहीं सीने का ख़ला
जाने क्या शय है जो बे-दख़्ल हुई है मुझ में
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ख़ामोश सही मरकज़ी किरदार तो हम थे
फिर कैसे भला तेरी कहानी से निकलते
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क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम
हम से ज़ियादा तेरा तलबगार कौन है
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वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं
अब ऐसे लोग तो कम देखने में आते हैं
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                                    टैग : याद-ए-रफ़्तगाँ
 
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मोहब्बत अपने लिए जिन को मुंतख़ब कर ले
वो लोग मर के भी मरते नहीं मोहब्बत में
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तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए
फिर पस-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ रात-भर रोता है कौन
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मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
तू क़रीब आ तुझे देख लूँ तू वही है या कोई और है
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दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो
तुम दोस्त हो तो क्यूँ नहीं मुश्किल समझते हो
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अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं
जो यहाँ आबाद हैं उन पर भी घर खुलता नहीं
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याद का ज़ख़्म भी हम तुझ को नहीं दे सकते
देख किस आलम-ए-ग़ुर्बत में मिले हैं तुझ से
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अब जो लहर है पल भर बाद नहीं होगी यानी
इक दरिया में दूसरी बार उतरा नहीं जा सकता
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इंतिज़ार और दस्तकों के दरमियाँ कटती है उम्र
इतनी आसानी से तो बाब-ए-हुनर खुलता नहीं
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भला वो हुस्न किस की दस्तरस में आ सका है
कि सारी उम्र भी लिक्खें मक़ाला कम रहेगा
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ज़ोरों पे 'सलीम' अब के है नफ़रत का बहाव
जो बच के निकल आएगा तैराक वही है
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तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'
इस भरे शहर की जो शक्ल हुई है मुझ में
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एक तरफ़ तिरे हुस्न की हैरत एक तरफ़ दुनिया
और दुनिया में देर तलक ठहरा नहीं जा सकता
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साए गली में जागते रहते हैं रात भर
तन्हाइयों की ओट से झाँका न कर मुझे
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मैं जानता हूँ मकीनों की ख़ामुशी का सबब
मकाँ से पहले दर-ओ-बाम से मिला हूँ मैं
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जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती
जो हम इक दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते
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मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
जो नहीं लिक्खा अभी उस की बशारत दूँगा
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अहल-ए-ख़िरद को आज भी अपने यक़ीन के लिए
जिस की मिसाल ही नहीं उस की मिसाल चाहिए
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अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा
ग़ज़ल में अब के भी तेरा हवाला कम रहेगा
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कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से
हम भरे शहर की ख़ल्वत में मिले हैं तुझ से
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ये आग लगने से पहले की बाज़-गश्त है जो
बुझाने वालों को अब तक धुआँ बुलाता है
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मैं उसे तुझ से मिला देता मगर दिल मेरे
मेरे कुछ काम नहीं आए वसाइल मेरे
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