सलीम सिद्दीक़ी के शेर
आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
आज दहलीज़ मिरी छत के बराबर हुई है
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कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
मशवरे करता है मुंसिफ़ जो गुनहगार के साथ
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हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
चलो 'सलीम' अब इंसान हो के देखते हैं
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अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
दोस्तो आओ कि कुछ ख़्वाब दिखाते हैं तुम्हें
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उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
अब वो गिन गिन के खिलाता है निवाले मुझ को
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बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
क़ैद रखते हैं अँधेरों में उजाले मुझ को
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अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
मुफ़्लिसी तो भरी बरसात में बे-घर हुई है
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टैग : मुफ़्लिसी
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ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
मैं वो हूँ जिस को मुनाफ़े में भी ख़सारा हुआ
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इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
सवाल दिल का नहीं है मिरी ज़बान का है
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कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
सर उतर आते हैं शाहों के भी दस्तार के साथ
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हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
मैं बे-लिबास नहीं पैरहन उतार के भी
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ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
कर दिया रात ने सूरज के हवाले मुझ को
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ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
अश्क-दर-अश्क उभरती है क़लमकार की गूँज
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आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
आज फिर लहजा हमारा इख़्तियार उस ने किया
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इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
मैं कोई रात नहीं हूँ जो सहर तक जाऊँ
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सारे किरदार कुचलने पे तुले हैं हम को
आओ चुप-चाप कहानी से निकल चलते हैं
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हम को उड़ने के तरीक़े न सिखाओ हम लोग
पेड़ से आए हैं पिंजरे से नहीं आए हैं
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कौन सूखे हुए फूलों की तरफ़ देखता है
ज़ख़्म थोड़े से हरे हों तो नुमाइश करें हम
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हम रियाज़ी के हैं माहिर कि हमारे घर में
एक तनख़्वाह पे दस लोग गुज़र करते हैं
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जबीं को चूम के बस इतनी रौशनी रख दे
हवा चराग़ बुझाए तो मुझ को डर न लगे
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मैं सदा दे के उसे रोक न पाया अफ़सोस
काश आवाज़ को ज़ंजीर किया जा सकता
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मिट्टी की फ़ज़ीलत पे बहुत शे'र कहे हैं
सोने से लिखा जाएगा दीवान हमारा
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जुगनू भी घर से निकलें सितारे भी आएँ साथ
मिट्टी के इक दिये पे मुसीबत का वक़्त है
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सुना था रूह-तलब है तिरे बदन की महक
सो तेरे शहर से गुज़रे तो साँस ली ही नहीं
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आँखें तड़प रही हैं मिरी कुछ ख़याल कर
बंद-ए-क़बा को खोल बदन को बहाल कर
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हम को बैसाखियाँ सँभाले हैं
पाँव होते तो लड़खड़ाते हम
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'अजीब लोग हैं लाशों में ज़िंदगी के निशाँ
हर एक जिस्म में नेज़ा चुभो के देखते हैं
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तिश्ना-कामी अगर पयम्बर हो
कौन कलमा पढ़ेगा पानी का
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फिर शाह ने बै'अत ही तलब की नहीं वर्ना
जो रन में हुआ था वही दरबार में होता
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यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
जैसे पलकों के झपकने से नज़र टूटती है
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गुलों के जिस्म पे शबनम 'अजीब रस्म है ये
किसी का दर्द किसी के जिगर में रक्खा जाए
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जुनून-ए-क़ाफ़िला-साज़ी तिरा क़ुबूल मगर
ये राह तंग न हो जाए शहसवारों पर
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मैं ने रोग़न की तिजारत तो नहीं की लेकिन
शहर के सारे चराग़ों के नसब जानता हूँ
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